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इन्होंने अपनी जिद से 21 बच्चों को स्लम से उठाकर पहुंचाया शिखर तक

पिंकी डॉक्टर बन कर टोंगलेन संस्था व समाज के गरीब लोगों की मदद करना चाहती हैं क्योंकि उसे पता है कि गंदगी में ही बीमारियां होती हैं।

By Srishti VermaEdited By: Published: Thu, 15 Jun 2017 08:59 AM (IST)Updated: Thu, 15 Jun 2017 08:59 AM (IST)
इन्होंने अपनी जिद से 21 बच्चों को स्लम से उठाकर पहुंचाया शिखर तक

धर्मशाला (नीरज व्यास)। शहर के साथ सटी चरान खड्ड के किनारे कुछ फूल सख्त चट्टानों के बीच खिलने की कोशिश कर रहे थे लेकिन गरीबी के तीखे कांटे उन्हें कुम्हला देने को हर जतन में लगे थे। रिंकी और उस जैसे कई बच्चे थे जो धर्मशाला की चरान खड्ड के किनारे कचरा बीनते थे... सिर्फ कचरा नहीं...उसी में से उनका रोज का लगभग नाश्ता और दोपहर का खाना भी निकल आता था। अधखाया बर्गर...कभी रोटियां तो कभी सड़ांधमारते मोमोज।

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वक्त बदला ...अब रिंकी लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी जालंधर से मेकेनिकल इंजीनियरिंग कर रही है। अपने भाइयों और बहनों के साथ कभी भीख मांगने वाली निशा और पिंकी के 12वीं नॉन मेडिकल में 76 फीसद अंक आए हैं... दोनों पीएमटी की तैयारी में हैं। पिंकी डॉक्टर बन कर टोंगलेन संस्था व समाज के गरीब लोगों की मदद करना चाहती हैं क्योंकि उसे पता है कि गंदगी में ही बीमारियां होती हैं। 12वीं कक्षा में 67 फीसद अंक लाने वाला कर्ण कुमार कर्नाटक जेएसएस कॉलेज से बीबीए कर रहा है। सपना है कि आइआइएम से एमबीए करे।

ऐसे 21 बच्चों को मुख्यधारा में लाना संभव किया लोबसंग जामयांग ने, जिन्होंने झुग्गी झोपड़ियों के बच्चों का जीवन संवारने के लिए टोंगलेन नामक संस्था बनाई। कई बार ऐसा भी हुआ कि जामयांग बच्चों को ले आए लेकिन उनके अभिभावक बच्चों को उठा ले गए और फिर कचरा उठाने और भीख मांगने के काम में लगा दिया। लेकिन जामयांग ने भी हिम्मत नहीं हारी। आज नतीजा यह है कि लोबसंग जामयांग की साधना ने कबाड़ बीनने वाले असाधारण बच्चों को डॉक्टर, नर्स, वकील, इंजीनियर व शेफ बनने की दहलीज पर पहुंचा दिया है। संस्था का साथ दिया दयानंद मॉडल स्कूल धर्मशाला ने, बच्चे यहां शिक्षा ग्रहण करते हैं।

समझी मानवता की भाषा
लोबसंग बताते हैं कि मैं 1997 में धर्मशाला आया। तिब्बत के रास्ते में बहुत कठिनाई है। मैंने प्रार्थना की थी अगर सही सलामत भारत पहुंच गया तो मानवता के लिए कुछ करूंगा। यहां आया तो भाषा की समस्या थी। लेकिन मानवता की भाषा सब समझते हैं। बच्चों द्वारा कचरा बीनने के कुछ ऐसे दृश्य देखे कि दिल जार- जार रोया। 2004 में 21 बच्चे झुग्गी झोपड़ी से लिए। उनके माता- पिता पहले नहीं माने क्योंकि ये बच्चे ही कबाड़ से उनकी आमदनी का जरिया थे। हर माह उनको 150 रुपये देने और दवा का खर्च उठाने की शर्त वे राजी हुए। टोंगलेन संस्था व हॉस्टल बनाकर उन्हें शिक्षा से जोड़ा।

नेक मकसद को मिली मदद
इस वक्त झुग्गी झोपड़ी के 106 लड़के- लड़कियां हॉस्टल में हैं। 2004 में डिपो बाजार धर्मशाला में टोंगलेन के नाम से स्कूल खोला। बच्चों की संख्या बढ़ी तो कांगड़ा हवाई अड्डे से करीब सात किमी दूर सराह में 10 कनाल भूमि खरीदकर 2011 में हॉस्टल बनाया। स्कूल चलाने के लिए टोंगलेन संस्था को अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के अलावा दलाईलामा ट्रस्ट से भी वित्तीय मदद मिलती है।

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मेरे लिए महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे डॉक्टर बनें या इंजीनियर। मैं इन्हें इन्सान बनाना चाहता था जिसमें सफल रहा। यही मैंने परमपावन दलाईलामा से सीखा। हॉस्टल में हिंदू, मुस्लिम व ईसाई धर्म के बच्चे है जो एक दूसरे के धर्म का सम्मान करते हैं।- लोबसंग जामयांग, टोंगलेन संस्था के निदेशक


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