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एक भारतीय नोबेल पुरस्‍कार विजेता जिसके शोध की उड़ाई गई थी हंसी, बाद में माना दुनिया ने लोहा

चंद्रशेखर उन वैज्ञानिकों में से एक हैं जिन्‍होंने खगोल विज्ञान की कई उलझनों को सुलझाया और दुनिया को कई सवालों के जवाब दिए। यहां पढ़ें उनके बारे में कुछ और खास बातें।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 21 Aug 2020 09:10 AM (IST)Updated: Sat, 22 Aug 2020 08:32 AM (IST)
एक भारतीय नोबेल पुरस्‍कार विजेता जिसके शोध की उड़ाई गई थी हंसी, बाद में माना दुनिया ने लोहा

नई दिल्‍ली (ऑनलाइन डेस्‍क)। डॉक्‍टर सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर उन भारतीयों में से हैं जिन्‍हें नोबेल पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया था। 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर में जन्‍मे चंद्रशेखर भारतीय-अमेरिकी खगोलशास्त्री थे। फिजिक्‍स पर की गई रिसर्च के लिए उन्हें विलियम ए फाउलर के साथ संयुक्त रूप से वर्ष 1983 भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा मद्रास में हुई। बचपन से ही पढ़ाई में तेज रहे चंद्रशेखर का 18 वर्ष की आयु में पहला रिसर्च पेपर इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स में प्रकाशित हुआ था। मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्‍नातक की डिग्री मिलने तक उनके कई रिसर्च पेपर पब्लिश हो चुके थे। बेहद कम उम्र में ही उनका एक रिसर्च पेपर प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी में भी प्रकाशित हुआ था।

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ब्‍लैक होल का रहस्‍य

वर्ष 1934 में महज 24 वर्ष की आयु में ही उन्होंने तारों के गिरने और लुप्त होने की गुत्‍थी सुलझा ली थी। 11 जनवरी 1935 को लंदन की रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी में उन्‍होंने इसको लेकर अपना रिसर्च पेपर भी सब्मिट कर दिया था। इस रिसर्च के मुताबिक सफेद बौने तारे जिसको व्हाइट ड्वार्फ स्‍टार कहा जाता है वो एक निश्चित द्रव्यमान यानी डेफिनेट मास हासिल करने के बाद अपने भार में वृद्धि नहीं कर सकते है। यही वजह है कि वो अंत में ब्‍लैक होल में तब्‍दील हो जाते हैं। उनकी रिसर्च में कहा गया था कि जिन तारों का डेफिनेट मास आज सूर्य से 1.4 गुना अधिक होगा, वे तारे आखिर में सिकुड़ कर बहुत भारी हो जाएंगे। इस तरह से वो अपने अंत तक पहुंच जाते हैं। उनकी इस रिसर्च को पहले ऑक्सफोर्ड के सर आर्थर एडिंगटन ने खारिज कर दिया था। इतना ही नहीं उनके इस रिसर्च पेपर पर चंद्रशेखर का मजाक तक बनाया गया था। लेकिन उन्‍होंने हार नहीं मानी और अपनी रिसर्च की पुष्‍टी के लिए वे लगातार शोध करते रहे। उनके इस शोध को उस वक्‍त बल मिला जब 1983 में उनके सिद्धांत को मान्यता मिली। उनकी वर्षों पुरानी रिसर्च को सही पाया गया। 1983 में उन्‍हें भौतिकी के क्षेत्र में डॉक्‍टर विलियम फाऊलर के साथ संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्‍मानित किया गया।

बेहद कम उम्र में हासिल की उपलब्धि

बेहद कम वर्ष की आयु में ही उन्‍होंने अपनी पहचान एक खगोल भौतिकीविद के रूप में बना ली थी। उनकी खोजों से न्यूट्रॉन तारे और ब्लैक होल के अस्तित्व की धारणा कायम हुई जिसे समकालीन खगोल विज्ञान की रीढ़ प्रस्थापना माना जाता है। खगोल भौतिकी के क्षेत्र में चंद्रशेखर के सिद्धांत चंद्रशेखर लिमिट के नाम से जाने जाते हैं। उन्‍होंने पूर्णत गणितीय गणनाओं और समीकरणों के आधार पर `चंद्रशेखर सीमा' का विवेचन किया था। उनके शोध के बाद सभी खगोल वैज्ञानिकों ने पाया कि सभी श्वेत वामन तारों का द्रव्यमान चंद्रशेखर द्वारा निर्धारित सीमा में ही सीमित रहता है। 1930 में उन्‍होंने अपनी आगे की पढ़ाई को शोध को जारी रखने के लिए अमेरिका का रुख किया था। वर्ष 1935 के आरंभ में ही उन्होंने ब्लैक होल के बनने पर भी अपने मत प्रकट किए थे, लेकिन कुछ खगोल वैज्ञानिक उनके मत स्वीकारने को तैयार नहीं थे।

 

खगोल विज्ञान में योगदान

चंद्रशेखर ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में तारों के वायुमंडल को समझने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और बताया कि एक आकाश गंगा में तारों में पदार्थ और गति का वितरण कैसे होता है। रोटेटिंग प्लूइड मास तथा आकाश के नीलेपन पर किया गया उनका शोध कार्य भी प्रसिद्ध है। चंद्रशेखर करीब 20 वर्ष तक एस्ट्रोफिजिकल जर्नल के एडिटर भी रहे। वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रथम भारतीय तथा एशियाई वैज्ञानिक सुप्रसिद्ध सर चंद्रशेखर वेंकट रामन के भतीजे थे।

सन 1969 में जब उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें पुरस्कार देते हुए कहा था, यह बड़े दुख की बात है कि हम चंद्रशेखर को अपने देश में नहीं रख सके। पर मैं आज भी नहीं कह सकती कि यदि वे भारत में रहते तो इतना बड़ा काम कर पाते। चंद्रशेखर अपनी पूरी जिंदगी रिसर्च करते रहे और अपना ज्ञान दूसरों में बांटते रहे। चंद्रशेखर का 22 अगस्त 1995 को 84 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से शिकागो में निधन हो गया।

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