काशी के घाटों की तरह ही दरक गया पूर्वाचल
[प्रशांत मिश्र]। काशी का स्मरण आते ही किसी के भी मन में एक आस्था जागती है। एक ऐसी आस्था जो संप्रदाय की सीमाओं को भी तोड़ दे। यह किसी से नहीं छुपा है कि उस्ताद बिस्मिल्ला खां की सुबह भी गंगा स्नान और हर-हर महादेव के जयकारों से ही शुरू होती थी।
वाराणसी [प्रशांत मिश्र]। काशी का स्मरण आते ही किसी के भी मन में एक आस्था जागती है। एक ऐसी आस्था जो संप्रदाय की सीमाओं को भी तोड़ दे। यह किसी से नहीं छुपा है कि उस्ताद बिस्मिल्ला खां की सुबह भी गंगा स्नान और हर-हर महादेव के जयकारों से ही शुरू होती थी। जमावड़ा तो काशी में आज भी होता है, आस्था और श्रद्धा की भूख भी मिटती है लेकिन मन और तन प्यासा ही रह जाता है। काशी के किसी भी घाट पर उतरकर दूर तक चले जाएं, तो ऐसा कोई छोर शायद ही मिले जो तन और मन को तृप्त कर दे। दूर तक पसरी गंदगी और प्रशासन की बेइंतहा असंवेदनशीलता आपको चुभेगी। यह कमी आपको न सिर्फ काशी, बल्कि पूरे पूर्वाचल में दिखेगी। जिस तरह काशी के घाट दरक रहे हैं, उसी तरह पूरे पूर्वाचल का सामाजिक आर्थिक ताना-बाना भी, लेकिन इस बार जनता के रुख से अंदाजा मिलने लगा है कि अब काशी और पूर्वाचल की दावेदारी विकास व विकास करने की क्षमता पर ही तौली जाएगी।
पूर्वाचल की विरासत जितनी समृद्ध रही है, वर्तमान उतना ही कटु है। वरुणा और अस्सी नदी के समागम से ही काशी का नाम वाराणसी पड़ा है। वरुणा का अस्तित्व तो है, लेकिन अस्सी नदी पर सवाल पूछिए तो शायद ही कोई संतोषप्रद जवाब सुनने को मिलेगा। हां, अस्सी घाट से थोड़ी दूर बढ़ें तो बड़ा गंदा नाला गंगा में जाता साफ दिखेगा। राजनीतिक विरासत की बात हो, तो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को छोड़ भी दें तो भी यहां से जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, चंद्रशेखर और वीपी सिंह जैसी चार बड़ी शख्सियत प्रधानमंत्री पद पर भी बैठ चुकी हैं। डॉ. संपूर्णानंद, कमलापति त्रिपाठी जैसे दिग्गज भी इसी जमीं से थे। प्राकृतिक संसाधनों की बात हो या फिर पुरुषार्थ की, यह जमीं उर्वर रही है। फिर क्या है कि यह पूरा क्षेत्र कुछ मायनों में बुंदेलखंड से पीछे खड़ा हो गया है? पूर्वाचल की उर्वर भूमि का इतिहास रहा है कि जब महाराष्ट्र में शुगर मिल नहीं थीं, या यू कहें कि देश के कई क्षेत्रों में गन्ने की खेती अनजान थी, तो पूर्वाचल 'चीनी का कटोरा' बन गया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार के कुछ हिस्सों में चीनी मिलें जनता को मिठास दे रही थीं। आज इस पूरे क्षेत्र में एक भी मिल नहीं चल रही है।
सोनभद्र में रिहंद बांध से बिजली पैदा होनी शुरू हुई, लेकिन पूर्वाचल नजरअंदाज कर दिया गया। आशा थी कि कुछ बिजली मिलेगी, कुछ नहरें खुदेंगी, लेकिन सब नदारद। पीड़ा यह रही है कि इस क्षेत्र ने जिन नेताओं को पैदा किया, वे तो बढ़कर राष्ट्रीय हो गए लेकिन पूर्वाचल पीछे छूट गया। इसी लापरवाही और असंवेदनशीलता ने क्षेत्र की पूरी स्थिति ही उलट दी। पिछले तीन दशक में जातीय व्यवस्था आधारित क्षेत्रीय दलों ने पैर जमा लिए। जिस क्षेत्र ने राजनीतिक दिग्गजों को पैदा किया, वही बाहुबलियों का इलाका हो गया। जो पूर्वाचल शिक्षा का गढ़ माना जाता था, वह ड्रग्स और हथियारों के शिकंजे में कस गया। अगर पूर्वाचल बढ़ते जमाने के साथ कदमताल नही कर पाया तो दोषी कौन है? जनता या नेता, जिससे लोगों ने अपनी आशा लगाई।
यह विडंबना नहीं है तो और क्या है कि देश की सबसे उपजाऊ जमीन वाले पूर्वाचल के लोगों को प्रति व्यक्ति आय 10-13 हजार सालाना के बीच है, जबकि सबसे पिछड़े क्षेत्र बुंदेलखंड में यह 18 हजार रुपये है। मोदी ने खुद के लिए वाराणसी चुना है, तो जाहिर है कि वह गंगा घाट से विकास की शपथ का संकेत देना चाहते हैं। पूर्वाचल को पुराने गौरव की आस दिखाना चाहते हैं। पूरे क्षेत्र में उनके नाम का अंडर करंट भी दिखने लगा है। ऐसे में चुनाव जीतने के बाद सपनों को पूरा करना उनके लिए बड़ी चुनौती होगी।