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जमीयत उलेमा ए हिन्द ने किया मुस्लिम महिलाओं के हक पर सुनवाई का विरोध

मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा ए हिन्द ने पर्सनल ला की दुहाई देते हुए सुप्रीमकोर्ट में मुस्लिम महिलाओं के हक पर सुनवाई का विरोध किया है।

By Manish NegiEdited By: Published: Fri, 05 Feb 2016 08:34 PM (IST)Updated: Sat, 06 Feb 2016 02:17 AM (IST)
जमीयत उलेमा ए हिन्द ने किया मुस्लिम महिलाओं के हक पर सुनवाई का विरोध

नई दिल्ली। मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा ए हिन्द ने पर्सनल ला की दुहाई देते हुए सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम महिलाओं के हक पर सुनवाई का विरोध किया है। जमीयत ने कहा है कि पर्सनल ला के प्रावधानों को मौलिक अधिकारों के हनन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम पर्सनल ला में शादी, तलाक और गुजारे भत्ते के मसले पर सुनवाई नहीं कर सकता।

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जमीयत ने ये बात सुप्रीमकोर्ट में पक्षकार बनाए जाने के लिए दाखिल अपनी अर्जी में कही है। सुप्रीमकोर्ट ने अर्जी स्वीकार कर जमीयत को मामले में पक्षकार बनने की इजाजत दे दी है। कोर्ट ने जमीयत को अपना पक्ष रखने के लिए छह सप्ताह का समय भी दिया है।

मालूम हो कि सुप्रीमकोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं के हक पर स्वयं संज्ञान लेते हुए सुनवाई का मन बनाया है। कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं की शादी, तलाक और गुजारे भत्ते से जुड़े मसले को मौलिक अधिकारों के संदर्भ में देखते हुए मामले को जनहित याचिका में परिवर्तित अटार्नी जनरल और नेशनल लीगल सर्विस अथारिटी को नोटिस भी जारी किया था। जमीयत ने अपनी ओर से अर्जी दाखिल कर कोर्ट से मामले में पक्षकार बनाए जाने की गुहार लगाई थी।

गुरुवार को जमीयत की ओर से पेश वरिष्ठ वकील ने मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ से मामले में पक्षकार बनाए जाने का अनुरोध किया। अपनी अर्जी का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ये पर्सनल ला से जुड़ा मामला है इस पर कोर्ट को सुनवाई नहीं करनी चाहिये। उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल ला में महिलाओं को पर्याप्त अधिकार और सुरक्षा दी गई है। पीठ ने जमीयत की मामले में पक्षकार बनने की अर्जी मंजूर कर ली। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में अटार्नी जनरल से जवाब मांगा गया था उनका जवाब अभी नहीं आया है इसलिए सुनवाई छह सप्ताह के लिए टाल दी।

जमीयत ने अपनी अर्जी में कहा है कि उनका संगठन 1919 से है और ये संगठन इस्लामिक संस्कृति परंपरा और धरोहरों के संरक्षण के लिए काम करता है। इसके अलावा जनहित और शिक्षा के काम भी करता है। जमीयत का कहना है कि कोर्ट मुस्लिम पर्सनल ला के प्रावधानों पर सुनवाई करने जा रहा है ऐसे मे कोर्ट को मुसलमानों का नजरिया भी जानना चाहिए।

कोर्ट मुस्लिम महिलाओं के हक के जिस मुद्दे पर सुनवाई करना चाहता है उस पर यही कोर्ट 1997 में अहमदाबाद वीमेन एक्शन ग्रुप बनाम भारत सरकार मामले में विचार कर चुका है। उस समय कोर्ट ने मामले पर विचार करने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि ये मुद्दा राज्य की नीति से जुड़ा है और कोर्ट का इससे लेना देना नहीं है। कोर्ट ने ये भी कहा था कि ये मामले विधायिका को देखने चाहिए। इसी तरह कृष्णा सिंह बनाम मथुरा अथिर के मामले में कोर्ट ने कहा था कि संविधान के तीसरे भाग यानि मौलिक अधिकारों में पक्षकारो के पर्सनल ला को नहीं छेड़ा गया है और हाईकोर्ट पर्सनल ला के मुद्दे पर विचार करते समय अपना नजरिया नहीं दे सकता सिर्फ कानून लागू कर सकता है।

जमीयत का कहना है कि इन तथ्यों को देखते हुए साफ हो जाता है कि पर्सनल ला के प्रावधानों को मौलिक अधिकारों के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। कोर्ट मुस्लिम पर्सनल ला में शादी, तलाक और गुजारा भत्ते के प्रावधानों पर सुनवाई नहीं कर सकता। जमीयत का कहना है कि पर्सनल ला विधायिका द्वारा नहीं बनाए गए हैं। इनकी बुनियाद आध्यात्मिक ग्रंथ हैं। मुस्लिम पर्सनल ला पवित्र कुरान पर आधारित है इसलिए इसे कानून की भाषा में अनुच्छेद 13 के तहत ला इन्फोर्स (लागू कानून) नहीं माना जा सकता। इसलिए इसकी वैधानिकता को मौलिक अधिकारों के आधार पर नहीं परखा जा सकता।

जमीयत का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 44 सभी नागरिकों के लिए समान आचार संहिता (कामन सिविल कोड) की बात करता है। लेकिन ये अनुच्छेद सिर्फ राज्य के नीति निदेशक तत्वों में दिया गया है इसे लागू नहीं कराया जा सकता। जब तक सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू नहीं होती तब तक इस अनुच्छेद में विभिन्न धर्मो में पर्सनल ला के जारी रहने की अनुमति दी गई है। संविधान निर्माता समान नागरिक संहिता लागू करने की मुश्किलों से वाकिफ थे और इसीलिए उन्होंने पर्सनल ला में दखल नहीं दिया और इसे सिर्फ नीति निदेशक तत्वों में रखा।

जमीयत का कहना है कि अगर कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं की शादी, तलाक या गुजारे भत्ते के बारे में विशेष नियम बनाये तो ये एक प्रकार से अदालत द्वारा बनाए गया कानून होगा। जिसकी इजाजत नहीं है। कोर्ट पहले भी कह चुका है कि अदालत विधायिका का काम नहीं कर सकती। अर्जी में कहा गया है कि मुस्लिम औरतों को मुस्लिम वोमेन (प्रोटेक्शन आफ राइटस आन डाइवोर्स) एक्ट 1986 के तहत संरक्षण मिला हुआ है और डैनियल लतीफ मामले में सुप्रीमकोर्ट इस कानून को वैध ठहरा चुका है। ऐसे में अब कोर्ट को इस मसले पर सुनवाई नहीं करनी चाहिए।


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