उत्तर भारत की कई नदियों का वजूद खत्म होने के कगार पर
देश में कई ऐसी नदियां हैं जो या तो पूरी तरह से सूख चुकी हैं या सूखने के कगार पर हैं। नदियों के सूखने की मूल वजह पानी को रोकने का बेहतर प्रबंधन न होना रहा है। फसलचक्र और वर्षाचक्र के बीच संबंध ठीक से स्थापित न किए जाने के
नई दिल्ली। देश में कई ऐसी नदियां हैं जो या तो पूरी तरह से सूख चुकी हैं या सूखने के कगार पर हैं। नदियों के सूखने की मूल वजह पानी को रोकने का बेहतर प्रबंधन न होना रहा है। फसलचक्र और वर्षाचक्र के बीच संबंध ठीक से स्थापित न किए जाने के कारण अधिकांश जल बह जाता है, वहीं कटाव को रोकने के बेहतर प्रबंध नहीं हैं। इसके अलावा भूजल पुनर्भरण की दिशा में भी काम नहीं हुआ है। विभिन्न राज्यों में हजारों छोटी-बड़ी ऐसी नदियां हैं जिसमें बरसात को छोड़ दें तो पूरे साल पानी न के बराबर होता है।
उत्तर प्रदेश
शुरुआत करते हैं उत्तर प्रदेश में स्थित धर्मनगरी वाराणसी से। इसका नाम ही दो पौराणिक नदियाें वरुणा और असि (अस्सी) के नाम से हुआ। आज इसका अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका है। दोनों नदियां गंदे नाले के रूप में परिवर्तित हो चुकी हैं। इससे दुर्गंध आती है। शहर की बड़ी आबादी का कचरा इन नदियों से होते हुए गंगा मेें गिरती है।
जौनपुर गोमती एवं पीली नदी का भी यही हाल है। गोमती का बुरा हाल है और पीली नदी में तो पानी ही नहीं बचा। इसी तरह पीलीभीत से निकलकर प्रतापगढ़ से होते हुए वाराणसी में गंगा में मिलने वाली सई नदी भी पूरी तरह से सूख चुकी है। गाजीपुर में मगई नदी का नामोनिशान मिट चुका है। गड़ई, तमशा, चंद्रप्रभा, विषही एवं सोन नदियाें की भी हालत बदतर है। गर्मी में नदियां बिल्कुल सूख जाती हैं और इसमें धूल उड़ती है।
फैजाबाद में महड़ा नदी में लोग अब खेती करने लगे हैं। इन नदियों के सूखने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इनमें सिल्ट जमते-जमते ये छिछली हो गई हैं। बारिश के कुछ घंटे बाद ही इनका पानी बह जाता है। रामचरित्र मानस में वर्णित तमसा नदी का वजूद भी मिटने के कगार पर है। आजमगढ़ में साल-दर-साल इसका जलस्तर गिरता जा रहा है। नदी का स्वरूप नाले जैसा हो गया है। मिर्जापुर में बहने वाली खजुरी नदी का भी अस्तित्व मिटने के कगार पर है।
मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश में छोटी-छोटी तीन सौ से ज्यादा नदियां पूरी तरह सूख चुकी हैं या सूखने के कगार पर खड़ी हैं। चंबल, बेतवा, क्षिप्रा, जामनी, धसान जैसी नदियों लगातार प्रदूषित होकर सूखती चली जा रही हैं। सरकारी स्तर पर इनके बचाव को लेकर योजनाएं तो बनीं लेकिन इसे आज तक अमल में नहीं लाया जा सका है। राज्य एक हिस्सा बुंदेलखंड के इलाके से जु़डा है। जहां पानी का नामोनिशान मिट चुका है। कभी यहां छोटी-छोटी नदियों का जाल था लेकिन वह सब सूख चुकी हैं। लोग पीने के पानी को भी तरसने को लेकर मजबूर हैं।
पंजाब
सतलुज, झेलम, चिनाब, रावी और व्यास नदियाें से घिरे पंजाब का अतीत जितना सुखद है वर्तमान उतना ही दुखद। अपनी उपजाऊ भूमि और उन्नत खेती की वजह से यह इलाका सदियों से खुशहाल रहा। लेकिन भारत-पाक बंटवारे के बाद चिनाब और झेलम नदियां पाकिस्तान में चली गईं। भारत के हिस्से वाले पंजाब में नदियों का दोहन इस तरह से हुआ कि शेष बची तीन नदियों की कई सहायक नदियाें का जलस्त्रोत सूख गया।
बिहार
वर्षों से बाढ़ की विभीषिका का शिकार रही बिहार की अधिकतर नदियां अब सूखने के कगार पर हैं। बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था और जल संसाधन विभाग की उपेक्षा के साथ-साथ लापरवाही के कारण इनका समन्वय नहीं हो पा रहा है। इससे न केवल किसानों की परेशानी बढ़ रही है, बल्कि इस क्षेत्र के लोग भी इसकी जद में आ रहे हैं। आलम यह है कि कहीं पेयजल की समस्या, तो कहीं नदियों में पानी रहने के कारण खेत बंजर होते जा रहे हैं। इससे खेती का गढ़ कहलाने वाले बिहार राज्य की एक बड़ी आबादी खुद को लाचार और बेबस महसूस कर रही है।
राज्य के पूर्वी बिहार का जिला हो, मिथिलांचल का क्षेत्र हो, कोसी क्षेत्र हो या फिर गंगा का दियरा क्षेत्र। नदियों के सूख जाने के कारण इन सभी जिलों में सिंचाई के साथ-साथ पेयजल संकट गहराने लगा है। अगर किसी नदी में पानी बचा भी है, तो वह संकुचित मानवीय सोच के कारण गंदे नाले में तब्दील हो गया है। जहां तक गंगा की बात है तो पहले इसमें अथाह पानी हुआ करता था लेकिन अब स्थिति बिल्कुल अलग है। नदी पर कई जगह बांध बनाए गए हैं। नदी की धारा मोड़ दी गई है। इस वजह से यहां गंगा के वजूद पर खतरा मंडराने लगा है। इसी तरह कई सहायक नदियां कर्मनाशा, नीलांजना, पंचानन, किउल, मोरहर, काेयल आदि का अस्तित्व खतरे में है।