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तहूं देखा रजा! तनी क्योटो क फोटो

अभी कल तक नहीं पता था नरहरपुरा वाले रूबी भइया को कि 'क्योटो' कौन सी चिड़िया का नाम है या खड़पुड़िया क्या है। मगर आज उनके हाथ में बाकायदा जापान की स्मार्ट सिटी क्योटो की फोटो है। दुकान पर आने वाला कोई बंदा इस फोटो के दीदार से बचा न रह जाए इस संडे को यही उनका मोटो है।

By Edited By: Published: Mon, 01 Sep 2014 11:42 AM (IST)Updated: Mon, 01 Sep 2014 12:49 PM (IST)
तहूं देखा रजा! तनी क्योटो क फोटो

वाराणसी [कुमार अजय]। अभी कल तक नहीं पता था नरहरपुरा वाले रूबी भइया को कि 'क्योटो' कौन सी चिड़िया का नाम है या खड़पुड़िया क्या है। मगर आज उनके हाथ में बाकायदा जापान की स्मार्ट सिटी क्योटो की फोटो है। दुकान पर आने वाला कोई बंदा इस फोटो के दीदार से बचा न रह जाए इस संडे को यही उनका मोटो है।

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'का रे .. खदेरना! कहले रहली न कि बहुत जल्दिये मोदी भयवा फारम में आई। बनारस बदे कुछ करके देखाई। समझा कि अपने शहर क उद्धार हो गयल। अब के रोकी मालिक! क्योटो से करार हो गयल।'

उधर कबीरचौरा की अड़ी पर भी क्योटो को ले कर ही हल्ला। मुरारी सरदार सुबह से ही सिर पर उठाए हुए हैं मुहल्ला। 'बाह रजा मोदी! जापान पहुंचते गुरु'। उचक भर देहल बनारस गोदी। जान ला अनील भइया जापान पहुंचते पहिला समझौता। बनारस के सजावे बदे जपनियन के न्योता। अब देखिह भाय जमीन के भित्तर दउड़ी रेल गाड़ी। खाली खेते में नाहीं अब त छते-छते होई खेती बाड़ी।

उधर दशाश्वमेध घाट पर भइया सुभाष साहनी भोरे से फरियाए हुए हैं। अकेले दम पर क्योटो का झंडा फहराए हुए हैं। ऐसे-ऐसे ख्याली प्रोजेक्ट कि रूस-अमेरिका तक झांई खा जाएं। कोई पचाना भी चाहे तो गले से नीचे ही न उतर पाए। ..भुला जा महंगी चच्चा अब नाहीं चल पाई काम के नाम पर धोखा अउर गच्चा। मोदी जी अब जापान क इंजीनियर इहां बइठइहें। गंगा क करवइहें सफाई घाट-घाट सजवइहें। गल्ली-गल्ली बिछी मारबल, नाला-नाली मुंदवइहें।

सामने घाट पर भोजपुरी समाज के संरक्षक सोमनाथ ओझा तो बदलाव की ऐसी-ऐसी तस्वीरें दिखा रहे हैं मानों काशी को क्योटो के रूप में निखारने का टेंडर उन्हीं के नाम से खुला हो। 'सब बदल जाई, केहू की अड़ले ना अड़ाई। संवर जाई मंदिर, रंगा जाई सब घाट। गल्ली-कूचा चमाचम, तब देखिह.. बनारस के ठाट।'

सोनारपुरा में पल्लू भइया की चाय अड़ी पर क्योटो पुराण थोड़ा संदेह के घेरे में है। हालांकि असित दादा (असित दास) के व्याख्यान में कोई दोष नहीं है फिर भी मूढ़-मतिमंद लोग यह नहीं समझ पा रहे कि बनारस की खड़बड़ सड़कों के नीचे से रेलगाड़ी कैसे दौड़ेगी। गलियां हो जाएं झकाझक मगर जनता पान की पीक डिपॉजिट करने की अपनी आदत कैसे छोड़ेगी। आखिरकार दादा के धैर्य के बंधे भी टूटते चले जाते हैं। उफ्फर पड़े तोनहन क आदत का उलाहना दे कर वे स्वयं वहां से कूच कर जाते हैं। उनके पीछे अपने यक्ष प्रश्न की पोटली लिए उन्हें दौड़ाता, पीछे आता बचाऊ सरदार का बेटउवा जिसकी बस एक ही चिंता कि बनारस जब क्योटो बन जाई। त हमार भंइसिया कहां बन्हाई।

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