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जानिए, क्यों फिर से धधक उठा है पश्चिम बंगाल का 'गोरखा लैंड'

ममता बनर्जी के फैसले ने पिछले कई सालों से शांत इस पर्वतीय इलाकों के एक बार फिर से हवा दे दी।

By Rajesh KumarEdited By: Published: Wed, 14 Jun 2017 03:12 PM (IST)Updated: Wed, 14 Jun 2017 08:28 PM (IST)
जानिए, क्यों फिर से धधक उठा है पश्चिम बंगाल का 'गोरखा लैंड'

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। पश्चिम बंगाल का पर्वतीय क्षेत्र एक बार फिर हिंसा की आग में झुलस रहा है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के इस विरोध प्रदर्शन में जहां कई सरकारी दफ्तरों को आग के हवाले कर दिया गया और गाड़ियां फूंक दी गईं तो वहीं दूसरी तरफ पर्यटकों को लगातार चेतावनी देते हुए उनसे इस इलाके को खाली करने की चेतावनी दी गई है। जाहिर है अशांति की जो यह आग उठी है वह इतनी जल्दी नहीं बुझनेवाली है। लेकिन, सवाल ये उठता है कि आखिर क्यों दार्जिलिंग बार-बार हिंसा की आग में जल उठता है? क्या है यहां के लोगों की मांग और उनकी मांगों को मानने में क्या है सरकार की परेशानी?

गोरखालैंड में लोगों का जनजीवन अस्त-व्यस्त
ममता बनर्जी के फैसले ने पिछले कई सालों से शांत इस पर्वतीय इलाकों के एक बार फिर से हवा दे दी है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने अनिश्चितकालीन बंद बुलाया। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की तरफ से किए जा रहे इस प्रदर्शन में वहां पर आम लोगों का जनजीवन ठप्प हो गया है। सैकड़ों सैलानी वहां पर फंसे हुए हैं जिन्हें निकालने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं।

दार्जिलिंग में भाषाई मुद्दे ने फिर पकड़ा तूल

दरअसल, दार्जिलिंग के लोगों की मांगें बड़ी बहुत पुरानी है और वह है अलग राज्य बनाने की। लेकिन, पूरे मामले को जिसने एक बार फिर से हवा दी है वह है राज्य के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ से पूरे बंगाल के स्कूलों में बंगाली भाषा पढ़ाए जाने को अनिवार्य किए जाने का फैसला। हालांकि, ममता ने इस बारे में अपना स्पष्टीकरण दे दिया है कि पहाड़ी क्षेत्र के लिए यह आदेश अनिवार्य नहीं है। लेकिन गोरखा जनमुक्ति के नेता इसके लिए तैयार नहीं है।
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बहुत पुरानी है गोरखालैंड की मांग

पर्वतीय क्षेत्र दार्जिंलिंग के लोगों की भाषाई आधार पर अलग राज्य करने की मांग काफी पुरानी है। अस्सी के दशक में जिस वक़्त इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे उस समय नेपाली भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए हिंसक झड़पें हुई थी। गोरखालैंड की मांग को खारिज कर देने के बाद राजीव गांधी की साल 1987 में बुलाई गई दार्जिलिंग की सभा में सिर्फ 150 लोग ही पहुंच पाए थे। इतना ही नहीं, साल 2008 में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के घीसिंग को भी उस वक्त दार्जिंलिंग छोड़कर भागना पड़ा जब वहां के स्थानीय लोगों ने उन पर नेपाली अस्मिता और धार्मिक आधार पर फूट डालेन की कोशिश का आरोप लगाया था।

चुनाव में जीत के लिए नारा बना- गोरखालैंड बनाम बंगाल

गोरखालैंड का मुद्दा वहां के क्षेत्रीय चुनाव पर भी पूरी तरह से हावी रहा है। यही वजह है कि ठंडे पड़े इस मुद्दे को एक बार फिर से गर्माने की पुरजोर कोशिशें हो रही है। साल 2011 में गोरखालैंड एडमिनिस्ट्रेशन की स्थापना की गई। जिसके बाद बिमल गुरूंग को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। क्षेत्रीय अस्मिता के आधार और अलग राज्य निर्माण के मुद्दे पर निकाय चुनावों में चार में से तीन पर अपनी जीत दर्ज की है।

सुभाष घिसिंग ने की थी गोरखालैंड की मांग की शुरूआत?

आज जिस गोरखालैंड को भाषाई आधार पर अलग राज्य बनाने की मांग की जा रही है ऐसा माना जा रहा है कि इसकी शुरूआत सबसे पहले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के सुभाष घिसिंग ने की थी। पहली बार पांच अप्रैल 1980 को घिसिंग ने ही गोरखालैंड नाम दिया था। जिसके बाद पश्चिम बंगाल सरकार दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल बनाने पर राजी हुई थी।

लेकिन, अब बिमल गुरूंग के उभरने के बाद हालात काफी खराब हुए हैं। बिमल गुरूंग ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट से अलग होकर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा बनाया। जिसके बाद गोरखालैंड की मांग तेज़ हो गई। गोरखालैंड में जो इलाके आते हैं वो हैं- बनारहाट, भक्तिनगर, बिरपारा, चाल्सा, दार्जिलिंग, जयगांव, कालचीनी, कलिम्पोंग, कुमारग्राम, कार्सेंग, मदारीहाट, मालबाज़ार, मिरिक और नागरकाटा। 

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