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भुखमरी से निपटने की लचर कवायद, राज्य सरकारों की भूमिका पर सवाल

अगर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम समय से लागू होता तो लगभग 75 फीसद लोगों तक अनाज पहुंच गया होता। लेकिन राज्य सरकारें विफल रही हैं।

By Lalit RaiEdited By: Published: Sun, 29 Oct 2017 11:29 AM (IST)Updated: Sun, 29 Oct 2017 12:46 PM (IST)
भुखमरी से निपटने की लचर कवायद, राज्य सरकारों की भूमिका पर सवाल

सुभाष गाताडे

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सत्तर के दशक में मशहूर नाटककार गुरुशरण सिंह का लिखा एक नुक्कड़ नाटक ‘हवाई गोले’ बहुत चर्चित हुआ, जिसमें लोकतंत्र की विडंबनाओं को उजागर किया गया था। नाटक में भूख से हुई मौत को छिपाने के लिए सरकारी अफसरों द्वारा किया गया दावा कि उसने ‘सूखे पत्ताें का साग खाया था’ बरबस पिछले दिनों हकीकत बनता हुआ दिखा, जब झारखंड के सिमडेगा जिले के कारीमाटी गांव की 11 साल की संतोष कुमारी की मौत सूर्खियां बनी। कोयली देवी-संतोष कुमारी की मां को अपनी बेटी के आखरी शब्द अब भी याद है। ‘माई भात दे, थोड़ा भात दे’। यही कहते हुए उसने आखरी सांस ली थी। पूरा परिवार कई दिनों से भूखा था और राशन मिलने के भी कोई आसार नहीं थे, क्योंकि राशन कार्ड के साथ आधार लिंक न होने के चलते उनका नाम लिस्ट से हटा दिया गया था। संतोष की मौत की वजह स्पष्ट है, मगर जिला प्रशासन का दावा है कि संतोष भुखमरी से नहीं बल्कि मलेरिया से मरी है। दरअसल उस इलाके में कई परिवार ऐसे हैं जो इसी तरह राशन कार्ड के आधार लिंक न होने के चलते अनाज पाने से वंचित और भूखमरी के शिकार हैं।

संतोषी की इस अकाल मृत्यु ने न केवल उस इलाके में व्याप्त भुखमरी की तरफ लोगों का ध्यान खींचा है बल्कि राशन कार्ड के आधार से लिंक न होने से किस तरह जरूरतमंद राशन से भी वंचित किए जाते हैं, उसे भी उजागर किया है। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने बार बार स्पष्ट किया हो कि राशन कार्ड अगर आधार से लिंक न भी हो तो उसे अनाज से वंचित न किया जाए। हाल में दो अलग अलग रिपोर्ट ने भारत में विकराल होती भूख की समस्या पर रोशनी डाली है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट’ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 119 विकासशील मुल्कों की फेहरिस्त में भारत फिलवक्त 100वें स्थान पर है, जबकि पिछले साल यह 97वें स्थान पर था। यानी भारत महज एक साल के अंदर तीन स्थान नीचे लुढ़क गया। 2014 की तुलना में यह सूचकांक 45 रैंक नीचे लुढ़क गया है यानी उस साल भारत की रैंक 55 थी। सिर्फ पाकिस्तान को छोड़ दें जिसका भूख सूचकांक 106 है, बाकी पड़ोसी मुल्क भारत से बेहतर स्थिति में हैं। उदाहरण के लिए नेपाल-72, म्यांमार-77, बांग्लादेश-88, चीन-29 भी निचले पायदान पर है। इतना ही नहीं उत्तर कोरिया-93, इराक-78 भी भारत से बेहतर है।

भूख का सूचकांक चार संकेतकों से निर्धारित होता है। आबादी में कुपोषितों का प्रतिशत, पांच साल से कम उम्र के बच्चों में अल्पविकसित तथा कमजोर बच्चे और उसी उम्र समूह में शिशु मृत्यु दर आदि। जहां सूचकांक 10 से कम हो तो यह भूख की व्यापकता में काफी कमी दिखाता है जबकि सूचकांक 50 से अधिक हो तो ‘अत्यधिक गंभीर’ स्थिति को रेखांकित होती है। यह रिपोर्ट विगत महीने संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से जारी ‘स्टेट ऑफ फूड सिक्युरिटी एंड न्यूटिशन इन द वल्र्ड 2017’ की रिपोर्ट की ही ताइद करती है, जिसने बढ़ती वैश्विक भूख की परिघटना को रेखांकित करते हुए बताया था कि भारत में भूखे लोगों की तादाद 19 करोड़ से अधिक है - जो उसकी कुल आबादी का 14.5 फीसद है। फिलवक्त पांच साल से कम उम्र के भारत के 38.4 फीसद बच्चे अल्पविकसित हैं जबकि प्रजनन की उम्र की 51.4 फीसद महिलाएं खून की कमी से जूझ रही हैं। जाहिर है कि सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों और अमल में गहरा अंतराल दिखाई देता है। इसका एक प्रमाण देश की आला अदालत द्वारा मई 2016 से पांच बार जारी निर्देश हैं जिन्हें वह ‘स्वराज्य अभियान’ की इस संबंध में दायर याचिका को लेकर दे चुका है, जहां उसने खुद भूख और अन्न सुरक्षा के मामले में केंद्र एवं राज्य सरकारों की बेरुखी को लेकर उन्हें बुरी तरह लताड़ा है। 2014 में सत्ता संभालने के बाद राजग सरकार ने कई दफा इस अधिनियम को लागू करने की समयसीमा आगे बढ़ा दी।

यह अधिनियम जब से बना तबसे लागू किया गया होता तो ग्रामीण आबादी के लगभग 75 फीसद के पास तक अनाज पहुंचाने की प्रणालियां कायम हो चुकी होती। पिछले साल की खबर थी कि राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा अधिनियम को लागू करने का कुल बजट 15,000 करोड़ रुपये था जबकि केंद्र सरकार ने उसके लिए महज 400 करोड़ रुपये ही आवंटित किए थे। जो हाल राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा अधिनियम का था, कमोबेश वही हाल ‘मनरेगा’ का भी था। मिसाल के तौर पर क्या इस बात की कल्पना तक की जा सकती है कि ग्रामीण गरीबों की जीवन की स्थितियां थोड़ी बेहतर बनाने के लिए बनाए गए रोजगार अधिकार अधिनियम के तहत - जिसमें ग्रामीण इलाके के हरेक घर से एक वयस्क को साल में सौ दिन की रोजगार की गारंटी की बात की गई थी तथा जहां मजदूरी का भुगतान पंद्रह दिनों के अंदर करने का वायदा था-सालों साल मजदूरी देने का काम लटका रह सकता है। इस बात की ताइद खुद संसद में ग्रामीण विकास राज्यमंत्री रामकृपाल यादव ने की थी। उन्होंने बताया कि बीते तीन सालों का 17,000 करोड़ रुपये की राशि अभी दी जानी है। उनके मुताबिक जहां 2014-15 का 4,200 करोड़ रुपया बकाया है तो 2015-16 का 3,900 करोड़ रुपया बकाया है तो 2016-17 में यह राशि 8,000 करोड़ के करीब है। यह आलम तब है जब आला अदालत ने पिछली मई में ही सरकार को लताड़ा था कि वह मनरेगा के लिए पर्याप्त धनराशि मुहैया नहीं करा रही है।

अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब ‘इक्कसवीं सदी में पूंजी’ के चर्चित लेखक थॉमस पिकेटी और उनके सहयोगी लुकास चासेल ने, अपने एक पर्चे में भारत में बढ़ती विषमता पर निगाह डाली थी और बताया कि किस तरह विगत तीन दशकों में भारत उन मुल्कों में अग्रणी रहा है, जहां सबसे ऊपरी एक फीसद तबके की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी में सबसे अधिक तेजी देखी गई है। अगर 1982-83 में ऊपरी एक फीसद के पास राष्ट्रीय आय का 6.2 फीसद रहा है वहीं तीस साल के अंदर- 2013-14 तक आते आते -यह प्रतिशत 21.7 फीसद हो चुका है। अब अगर एक जगह चमक बढ़ेगी तो लाजिमी है कि दूसरे छोर पर चमक घटेगी, भारत में बढ़ती भूख को लेकर यह ताजा रिपोर्टे शायद यही बात संप्रेषित करती है।

(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)

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