कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती,चेहरा बदलने से क्या कांग्रेस को मिलेगा फायदा
इस समय कांग्रेस में न केवल चेहरा, बल्कि नीतिगत स्पष्टता तथा रणनीति में भी व्यापक बदलाव समय की मांग है।
नई दिल्ली [अवधेश कुमार] । राहुल गांधी अब कांग्रेस का अध्यक्ष बन रहे हैं। वह 2004 से सक्रिय राजनीति में हैं और सांसद हैं। इस नाते उनकी सोच और कार्यप्रणाली से कांग्रेस के साथ देश भी परिचित है। सच कहा जाए तो सोनिया गांधी के अस्वस्थ होने के बाद से वह लगभग कार्यकारी अध्यक्ष की भूमिका में हैं। जब वह इस भूमिका में नहीं थे तब भी उनकी बात का कांग्रेस पार्टी के अंदर कितना महत्व था यह बताने की आवश्यकता नहीं है। अब तो केवल कार्यकारी भूमिका से उनको मुख्य भूमिका में लाया जा रहा है।
कांग्रेस में क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत
वास्तव में इस समय कांग्रेस में बहुस्तरीय क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता है। न केवल उसको चेहरा बदलने की जरूरत है, बल्कि नीतिगत स्पष्टता तथा रणनीति में भी व्यापक बदलाव समय की मांग है। कांग्रेस लंबे समय से नीति, नेतृत्व एवं रणनीति तीनों संकटों से गुजर रही है। देश की एक प्रमुख पार्टी होते हुए भी उसकी नीति क्या है, यानी विचारधारा क्या है यही स्पष्ट नहीं है। तो क्या राहुल गांधी कांग्रेस को एक निश्चित विचारधारा तथा उससे निकलने वाली सुस्पष्ट नीतियों की पहचान देने में सफल होंगे, जो कि समय की माग है? इसका उत्तर हां में देना कठिन है। आज तक राहुल गांधी ने इस पर कोई बात ही नहीं की है। सच तो यह है कि कांग्रेस आज यह मानने को ही तैयार नहीं है कि उसके सामने विचारधारा की अस्पष्टता का कोई संकट है। इसके लिए राजनीति की गहरी समझ और लंबा चिंतन चाहिए। राहुल गांधी इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
'अंतर्विरोध से जुझ रही कांग्रेस'
राहुल गांधी का एक भी भाषण और वक्तव्य ऐसा नही है जो इस ओर इशारा कर सके। तो जब आप विचारधारा के स्तर पर ही पार्टी को फिर से पुनर्गठित करने की सोच नहीं रखते तो फिर कांग्रेस का दूरगामी भविष्य सुधरेगा तो कैसे? यह एक बड़ा सवाल है जिसका उत्तर तलाशने में हमारे सामने केवल शून्य आता है। शेष चीजें विचारधारा के बाद ही आती हैं। नेतृत्व भी विचारधारा से ही पैदा होता है। उदाहरण के लिए जिसकी आस्था हिंदुत्व में होगी वह चाहे-अनचाहे भाजपा का साथ देगा, भले भाजपा हिंदुत्व की कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरे या नहीं, लेकिन उसकी पहचान उसी रूप में है। कांग्रेस तो अभी इसी में झूल रही है कि उसकी जो मुस्लिम परस्त होने की छवि बनी उससे कैसे बाहर निकला जाए? इसमें राहुल गांधी मंदिरों एवं हिंदू उत्सवों में भाग लेकर स्वयं को सच्चा हिंदू बताकर उसे तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
जमीन पर कितना होगा असर
लेकिन राहुल गांधी और कांग्रेस की इस मामले में सीमाएं हैं। वह हिंदुत्व की पार्टी नहीं हो सकती। सेक्युलरवाद की विकृत समझ और व्याख्या उसे त्रिशंकू स्थिति में बनाए रखेगा। इसमें उसकी क्या पहचान बनेगी बताने की आवश्यकता नहीं है। दूसरा प्रश्न नेतृत्व का है। कांग्रेस के कुछ नेतागण राहुल की ताजपोशी के साथ अगर यह मान रहे हैं नेतृत्व का प्रश्न इससे सुलझ गया है तो इस व्यावहारिक धरातल पर भी स्वीकार करना कठिन है। इस समय कांग्रेस को ऐसा नेतृत्व चाहिए, जो उसे वैचारिक रूप से आलोड़ित कर सके, कार्यकर्ताओं-नेताओं में घर कर चुके हताशा को धक्का देकर ध्वस्त कर सके, अपने भाषणों-वक्तव्यों तथा गतिविधियों से उनमें उत्साह पैदा करे, ऐसे लोगों की टीम बनाए जिससे देश को भी लगे कि हां, अब कुछ कर गुजरने वाले लोग साथ आ गए हैं तथा सामने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की वाक्शैली का उसी के अंदाज में प्रत्युत्तर दे सके। यानी पार्टी में वैचारिक तथा सांगठिक स्तर पर समग्र बदलाव की आवश्यकता है। प्रश्न है कि क्या राहुल गांधी इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं?अगर कोई अकेले नेतृत्व की वर्तमान आवश्यकता पूरी नहीं करता हो तो फिर सामूहिक नेतृत्व विकसित करना चाहिए। कांग्रेस की समस्या है कि उसकी निर्णायक मंडली सामूहिक नेतृत्व की कल्पना तक नहीं कर सकता। उसे एक वंश से ही नेतृत्व तलाशना है। वह चाहे योग्य हो या नहीं। सोनिया गांधी को 1998 में जब अध्यक्ष बनाया गया तो उनकी एकमात्र योग्यता यही थी कि वह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विधवा थीं। राजनीति में उनका कोई योगदान नहीं था। उसके बाद कांग्रेस की नजर राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी पर थी। प्रियंका को अवसर नही दिया जा रहा है। यह अवसर राहुल को मिला है। इसके बाद शायद प्रियंका के संतानों को नेतृत्व का दायित्व मिले।
कांग्रेस कहीं भ्रम की शिकार तो नहीं
कांग्रेस को लगता है कि उनकी पार्टी एकजुट तभी रह सकेगी जब नेहरू-इंदिरा परिवार का कोई व्यक्ति उनका नेतृत्व करे। उसमें योग्यता-अयोग्यता का प्रश्न उठता ही नहीं है। यह कुंद मनोविज्ञान कांग्रेस के वास्तविक प्रखर पार्टी में परिणत होने में बाधक है, लेकिन इसको मिटाना आसान नहीं है। यह तभी होगा जब इस वंश के लोग पूरी तरह विफल हो जाएं, पार्टी चुनावी राजनीति में रसातल पर लगातार पहुंचती रहे एवं इसके उभरने की संभावना मर जाए। वैसी स्थिति में पार्टी में जगह-जगह टूट हो सकती है और अलग-अलग पार्टियां खड़ी हो सकतीं हैं जिनको बाद में एक साथ लाने की कोशिश भी हो सकती है। तत्काल ऐसी स्थिति नहीं दिखती इसलिए राहुल का कुछ समय निष्कंटक रहेगा। लेकन अगर उनकी चुनावी रणनीति लगातार विफल रहती है तो फिर मरता क्या न करता कि तर्ज पर पार्टी में विद्रोह की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
राहुल के पास मौकों की कमी नहीं
हालांकि सोनिया गांधी के नेतृत्व में चमत्कार हुआ और कांग्रेस के नेतृत्व में 10 वर्ष तक संप्रग की सरकार चली। सोनिया से भी किसी को उम्मीद नहीं थी। राहुल के साथ एक प्रबल पक्ष यह है कि उन्हें लगभग शून्य से आरंभ करना है। इसमें यदि उन्होंने चुनावी राजनीति में थोड़ा भी बेहतर कर दिया तो इसकी सफलता का सेहरा उनके सिर जाएगा। जैसे 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में 22 सीटें मिल गईं और इसका सेहरा राहुल गांधी के सिर बांधा गया। भाजपा नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में कुछ गलतियां करती हैं तो इसका लाभ राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को ही मिलेगा। ऐसा कुछ होता है तब भी आप यह नहीं कह सकते कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी पुरानी स्थिति की प्राप्ति कर ली है तथा एक स्वस्थ और संतुलित पार्टी के रूप में फिर से इस तरह खड़ी हो रही है जिसका लंबा भविष्य है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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