आंखों के लिए तारे बने गुरुबिंदर, आठ सौ लोगों की आंखों का लौटाया नूर
मुरादाबाद [ज्ञानेंद्र त्रिपाठी]। आंखें हैं तो जहान है। आंखें नहीं तो घुप्प अंधेरा। सब जानते हैं, सब मानते हैं। सरकार भी साल में एक बार 25 अगस्त से नेत्रदान पखवारा मनाती है। इस समय भी मना रही है। पर, एक शख्स ऐसा है जिसकी दिनचर्या इसी उधेड़बुन से शुरू होती है कि किसी नेत्रहीन की जिंदगी में उजियारा कैसे हो। शादी की पार्टी हो या शोक स
मुरादाबाद [ज्ञानेंद्र त्रिपाठी]। आंखें हैं तो जहान है। आंखें नहीं तो घुप्प अंधेरा। सब जानते हैं, सब मानते हैं। सरकार भी साल में एक बार 25 अगस्त से नेत्रदान पखवारा मनाती है। इस समय भी मना रही है। पर, एक शख्स ऐसा है जिसकी दिनचर्या इसी उधेड़बुन से शुरू होती है कि किसी नेत्रहीन की जिंदगी में उजियारा कैसे हो। शादी की पार्टी हो या शोक सभा। सांस्कृतिक मंच हो या धर्म सभा, मौका मिलते ही हाथ फैला देता है। देने वाले तैयार होते हैं तो संकल्प करवा लेता है।
गुरुबिंदर के जुनून की शुरुआत 13 साल पहले हुई। तब बड़े भाई की आंख की रोशनी अचानक चली गई। उन्हें गाजियाबाद ले जाया गया और बमुश्किल रोशनी लौटी। भाई अंधियारे से उजियारे में तो आ गए, लेकिन जब अंधियारे की पीड़ा बताई तो दिल कांप उठा। दर्द से भी ज्यादा उन्होंने देख न पाने की पीड़ा को बयां कर हिला दिया। तभी उन्होंने सोच लिया, इस आह को अहा में बदलना है, उन आंखों को दृष्टि देनी है, जिन्होंने यह दुनिया देखी ही नहीं है।
जैसे भी हो लोगों के बीच जाकर दायित्वबोध कराना है और नेत्रदान की गारंटी लेनी है।1 शुरूआत ठोस करनी थी। सो, पिता जी से की, बाद में माता जी के पास गया, मां ने भी संकल्प पत्र भर दिया। नेत्रदान का प्रण ले लिया। बाहर गए तो दुश्वारियां शुरू हुईं। कहीं धर्म आड़े आया तो कहीं इंसानी प्रेम का प्रपंच। ऐसे में एक-एक से मिलने की जगह सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं को अपना पड़ाव बना लिया।
पहले सिखों को समझाया, फिर हिंदू स्स्थाओं को मनाया, बाद में चर्च में भी चर्चा की। समझने-समझाने की इस राह में अब तक आठ सौ आंखों को दृष्टि मिल चुकी है, 4000 लोग नेत्रदान का संकल्प ले चुके हैं। उन्होंने बताया कि मुस्लिम भाइयों से बात नहीं बन रही है, पर हार नहीं मानी है। तैयारी यह भी है कि धार्मिक संस्थाओं में ही आई बैंक बने और यही संस्थाएं खुद आगे आएं। इसके लिए अयोध्या, काशी और हरिद्वार के संतों से मिल आया हूं। अभियान को ओर गति मिले इसके लिए सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मंचों के साथ अब शोक सभाओं में भी जाना शुरू कर दिया है। शोक व्यक्त करने का जब भी समय कोई देता है, अपनी बात रखता हूं। 1
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