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बिहार चुनावः महज चुनावी नही है इमामगंज की लड़ाई

दो साल पहले बिहार की राजनीति में एक चेहरा उभरकर आया था-जीतनराम मांझी। अपने लंबे काल में सीमित पहचान बनाने वाले मांझी ने दो वर्ष में ही वह राजनीतिक हैसियत बना ली जिसके बाद उन्हें जाहिर तौर पर प्रदेश के सबसे चतुर राजनीतिज्ञों में शुमार माना जाने लगा।

By Sanjeev TiwariEdited By: Published: Fri, 09 Oct 2015 02:37 AM (IST)Updated: Fri, 09 Oct 2015 02:45 AM (IST)
बिहार चुनावः महज चुनावी नही है इमामगंज की लड़ाई

आशुतोष झा, गया। दो साल पहले बिहार की राजनीति में एक चेहरा उभरकर आया था-जीतनराम मांझी। अपने लंबे काल में सीमित पहचान बनाने वाले मांझी ने दो वर्ष में ही वह राजनीतिक हैसियत बना ली जिसके बाद उन्हें जाहिर तौर पर प्रदेश के सबसे चतुर राजनीतिज्ञों में शुमार माना जाने लगा। लेकिन वह चतुर राजनीतिज्ञ कहीं अपने ही चुनाव क्षेत्र में मात तो नहीं खाएगा? उन्होंने मखदुमपुर के साथ साथ इमामगंज से भी चुनाव लड़ने का फैसला लिया तो यह सवाल लाजिमी है।

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लेकिन लगभग 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इन दोनों क्षेत्रों का दौरा करें तो दूसरा सवाल भी उठ सकता है- क्या मांझी कुछ और भी साबित करना चाहते हैं? इमामगंज के पुराने योद्धा और बिहार विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी को परास्त कर वह किसी और महत्वाकांक्षा की पूर्ति करना चाहते हैं या फिर वह मखदुमपुर को लेकर बहुत आश्र्वस्त नहीं हैं? या फिर राज्य सरकार में बदलाव के दौरान हुए प्रकरण में चौधरी की भूमिका का प्रतिशोध चाहते हैं या फिर बिहार की राजनीति में खुद को सबसे बड़ा दलित चेहरा का रूप में स्थापित करने की कोशिश है?

राजग में सीट बंटवारे का पूरा फार्मूला तय होने के बाद मांझी ने इमामगंज भी खुद के लिए लिया था। भा्जपा का केंद्रीय नेतृत्व भी सहर्ष तैयार हो गया था। दरअसल इमामगंज का जातिगत समीकरण मांझी को रास आता है। मखदुमपुर को लेकर उनका आत्मविश्र्वास इतना ज्यादा है कि वह यह तक बोल आए कि अब हम वोट मांगने नहीं आएंगे। हालांकि जहानाबाद शहर से मखदुमपुर में प्रवेश करते ही मुस्सी जैसे गाव भी हैं जहां स्पष्ट रूप से मतदाताओं में विभाजन देखा जा सकता है। पास ही के तुलसीपुर जैसे यादव बहुल गांव तो मांझी समर्थकों को डरा भी सकते हैं जो एकजुट राजद के उम्मीदवार को वोट देने का मन बना चुका है। मननपुर जैसे गांव में जहां मिश्रित आबादी है वहां इकतरफा वोट पड़ने की उम्मीद कम है। फिर भी ऐसा कोई माहौल नहीं है जो मांझी के खिलाफ हवा की भनक दे। शायद यही कारण है कि मांझी अपने क्षेत्र को छोड़कर दूसरे विधानसभा क्षेत्रों में ज्यादा दौरा कर रहे हैं।

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नक्लसवाद के प्रभाव में रहे इमामगंज से मांझी की दावेदारी ने जदयू के चौधरी को जरूर सशंकित कर दिया है। वह लगातार अपने क्षेत्र में डेरा जमाए बैठे हैं। कई कारणों से उनकी पकड़ मजबूत रही है, मुस्लिम मतदाताओं के कारण उन्हें थोड़ा विश्र्वास भी है। लेकिन शेखों के दस गांव का रुझान किधर होगा यह कहना इसलिए मुश्किल है क्योंकि वह परंपरागत अल्पसंख्यक वोटरों से थोड़ा अलग सोच सकते हैं। पिछड़ों और अगड़ों का समीकरण भी कुछ ऐसा है लड़ाई कांटे की रही है। पिछली बार भी चौधरी बड़ी जीत हासिल नहीं कर पाए थे। रास्ते में कहीं भी रुककर पूछेंगे तो मिश्रित जवाब आएगा। कुछ बदलाव चाहते हैं तो कुछ नीतीश सरकार के लिए चौधरी के पक्ष में हैं। फिलहाल यह जरूर कहा जा सकता है कि चौधरी के गढ़ में मांझी ने खम ठोक दिया है।

पर सवाल उससे भी बड़ा है जो इमामगंज में भी चर्चाओं में सुना जा सकता है। मांझी अगर इमामगंज फतह करने में कामयाब होते हैं तो उसके अर्थ क्या हैं? गौरतललब है कि सत्ता परिवर्तन के वक्त जब जदयू के अंदर दो खेमों की लड़ाई चरम पर थी तो गेंद बतौर अध्यक्ष चौधरी के हाथ में था। और चौधरी ने मांझी की मांगों को नकार दिया था। अब इमामगंज में मांझी हिसाब चुकता करने उतरे हैं। लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि मांझी की इच्छा इससे अधिक है। राजग में सहयोगी राम विलास पासवान को वह यह कहने के लिए मजबूर कर चुके हैं कि मांझी बड़े नेता है। अब चौधरी जैसे दिग्गज को उनकी ही जमीन पर पटखनी देकर मांझी यह स्थापित कर देना चाहते हैं कि बिहार में दलित नेतृत्व का चेहरा कौन है।

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