फांसी की सजा पाए प्रत्येक तीन में से एक कैदी होता है बाइज्जत रिहा
एक प्रोजेक्ट पर नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की तरफ से काम करने के बाद पता चला कि तीन में से केवल एक फांसी की सजा पाए कैदी बाइज्जत रिहा होता है।
नई दिल्ली। एक अध्ययन से पता चला है कि ट्रायल के दौरान निचली अदालतों की तरफ से 100 कैदियों पर सुनाए गए फांसी फैसलों में से सिर्फ 5 की फांसी को ही ऊपरी अदालत में बरकरार रखा जाता है। जबकि, करीब 30 फीसदी कैदी वहां से बच निकलते हैं और शेष बचे को ही सजा सुनाई जाती है।
सवाल उठता है कि वो लोग जो आपराधिक न्याय प्रणाली में फंसे और फांसी की सजा दी गई उनका क्या हुआ? आजादी से लेकर अब तक के इस बारे में ना ही मंत्रालय और ना ही किसी एजेंसी के पास कोई रिकॉर्ड है कि अब तक भारत में कितने लोगों को फांसी दी गई। इस बारे में जो भी डाटा है भी वो नाकाफी है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली (एनएलयूडी) की तरफ से ‘द डेथ पेनाल्टी प्रोजेक्ट’ पर पहली बार काम कर उन लोगों के बारे में बेहद करीब से पता करने की कोशिश की गई जिन्हें फांसी की सजा सुनाई गई उनका आखिरकार क्या हुआ। जुलाई 2013 से लेकर जनवरी 2015 के बीच आधिकारिक आंकड़ों को इकट्ठा किया गया और सैकड़ों ऐसे कैदियों और उनके परिवारवालों के इंटव्यू लिए गए जिन्हें अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है।
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एनएलयूडी की अध्यक्षता कर रहे संवैधानिक कानून के प्रोफेसर अनुप सुरेन्द्रनाथ का कहना है कि इस दौरान उन्होंने जो भी बातें उन लोगों से सुनी वो बेचैन करनेवाली थी। एक फांस की सजा पाए कैदी हरिकृष्णन ने कहा कि मैं ऐसा महसूस करता हूं कि एक कैंची के दो ब्लेड के बीच फंस चुका हूं जहां से बचने की कोई उम्मीद नहीं है।
इस प्रोजेक्ट में आपराधिक न्याय व्यवस्था की अनिश्चितता, जेलों की स्थिति और अपनी बातें मनवाने के लिए पुलिस की कैदियों के साथ बरबर्ता और उनके परिवारवालों को परेशान करना आम बात है। लेकिन, किसी फांसी की सजा पाए कैदी के लिए कि वो जिंदा रहेगा या मर जाएगा इतने लंबे वक्त का इंतजार उसे बर्बाद कर सकता है। ये अनिश्चितता कैद के किसी भी अन्य रूप से बिल्कुल अलग तरह का होता है।