आलेख : ग्रीस की त्रासदी हमारे लिए भी सबक - डॉ. भरत झुनझुनवाला
मोदी को समझना चाहिए कि विकसित देशों का समूह संकट में है। इनसे मांगने के स्थान पर इन्हें एक झटका और देना चाहिए।
ग्रीस की जनता ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा प्रस्तावित राहत पैकेज को नकार दिया है। इससे पूर्व ग्रीस ने मुद्रा कोष को डेढ़ अरब यूरो का पेमेंट नहीं किया। शीघ्र ही उस देश को 10 अरब यूरो का पेमेंट यूरोपीय सेंट्रल बैंक को करना है। तय है कि ये पेमेंट भी नहीं किए जाएंगे। इसलिए लोगों की प्रवृत्ति बनती है कि बैंकों में जमा अपनी रकम को निकाल लें। ऐसे में ग्रीस के घरेलू बैंकों का भी दिवाला निकल सकता है। इस स्थिति से बचने के लिए ग्रीस की सरकार ने सात दिनों के लिए सभी बैंकों को बंद कर दिया। देश में दुकानें तथा फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं। त्राहि-त्राहि मची है।
समस्या के मूल में विकसित देशों की प्रतिस्पर्द्धा शक्ति का ह्रास है। पिछली शताब्दी में विकसित देशों में तमाम नई तकनीकों का ईजाद हुआ है, जैसे बीस के दशक में मोटरकार, चालीस के दशक में परमाणु रिएक्टर, साठ के दशक में जेट हवाई जहाज, सत्तर के दशक में कंप्यूटर एवं नब्बे के दशक में इंटरनेट। इन आविष्कारों के बल पर विकसित देशों ने अपने माल को विकासशील देशों को महंगा बेचा और लाभ कमाए, लेकिन पिछले दो दशक में कोई भी प्रभावशाली आविष्कार नहीं हुआ है। मनुष्य के डीएनए के कोड, अंतरिक्ष यात्रा तथा जीन परिवर्तित खाद्य पदार्थ से विकसित देशों को विशेष लाभ नहीं हुआ है।
पिछले दो दशक में मैन्यूफैक्चरिंग चीन को स्थानांतरित हो गई है। वर्तमान में सेवाएं भारत को स्थानांतरित हो रही हैं। यह संकट पहले ग्रीस जैसे कमजोर देशों में प्रकट हुआ है, जैसे डायबिटीज का पहला आक्रमण शरीर के सबसे कमजोर हिस्से पर होता है। इस समस्या से उबरने के लिए ग्रीस ने भारी मात्रा में ऋ ण लिए। लेकिन प्रतिस्पर्द्धा शक्ति में सुधार नहीं हुआ और आज ग्रीस ऋ ण चुकाने में असमर्थ हो गया है। और ऋ ण देने के लिए मुद्रा कोष ने शर्त लगाई थी कि टैक्स दरों में वृद्धि की जाए तथा सरकारी खर्चों में कटौती की जाए, जिससे ग्रीस की सरकार के पास ऋण अदा करने को राजस्व एकत्रित हो सके। लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत। टैक्स बढ़ाने से विश्व बाजार में ग्रीस का माल महंगा हो गया। निर्यात दबाव में आ गए। मुद्रा कोष द्वारा दी गई दवा ही रोग बन गई। पिछले तीन साल में ग्रीस की अर्थव्यवस्था 29 प्रतिशत सिकुड़ गई है। बेरोजगारी तीन गुना बढ़कर 26 प्रतिशत पर पहुंच गई है।
लगभग दो दशक पूर्व ऐसी ही परिस्थिति अर्जेंटीना में उत्पन्न् हुई थी। वह देश भी ऋ ण को अदा नहीं कर सका था। उस देश ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया, उसी तरह जैसे 1991 में मनमोहन सिंह ने अपने रुपए का अवमूल्यन होने दिया था। फलस्वरूप विश्व बाजार में अर्जेंटीना का माल सस्ता पड़ने लगा। निर्यात बढ़े, उत्पादन बढ़ा, राजस्व बढ़ा और वह देश आगे बढ़ गया। लेकिन ग्रीस द्वारा यह रणनीति नहीं लागू की जा सकती है। अर्जेंटीना की अपनी मुद्रा थी जैसे हमारा अपना रुपया है, जिसे रिजर्व बैंक छापता है। लेकिन ग्रीस की अपनी मुद्रा है ही नहीं। ग्रीस में यूरोपियन यूनियन की साझा मुद्रा यूरो लागू है। ग्रीस चाहे तो भी अपनी मुद्रा का अवमूल्यन नहीं कर सकता।
यूरोपियन यूनियन सदस्यता के दो स्तर हैं। निचले स्तर पर माल एवं व्यक्तियों की मुक्त आवाजाही स्थापित होती है। ऊपर के स्तर पर साथ-साथ एकल मुद्रा यूरो को भी अपना लिया जाता है और देश की अपनी मुद्रा जैसे फ्रांस का फ्रैंक तथा जर्मनी का मार्क निरस्त हो जाता है। इंग्लैंड ने केवल निचले स्तर की सदस्यता स्वीकार की है। इंग्लैंड की मुद्रा पाउंड आज भी जीवित है। इंग्लैंड चाहे तो अर्जेंटीना की तरह अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर सकता है। ग्रीस ने ऊंचे स्तर की सदस्यता स्वीकार की है। उस देश में यूरो का प्रचलन है। ग्रीस की अपनी मुद्रा ड्राक्मा का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। ग्रीस अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करके विश्व बाजार में सस्ता माल नहीं बेच सकता। इस कारण ग्रीस का संकट गहराता जा रहा है।
कहा जा सकता है कि मुद्रा का अवमूल्यन करे बगैर ग्रीस के उद्यमी अपना माल सस्ता बेचकर वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में टिक सकते हैं, यह संभव नहीं है। कारण कि माल का दाम घटाने के लिए पूरी सप्लाई चेन द्वारा दाम घटना जरूरी है। जैसे होटल के कमरे का दाम तब ही घट सकता है जब सब्जी, बिजली, कपड़ा, धुलाई आदि के दाम भी साथ-साथ घटें। सब दाम को एक साथ घटाना मुमकिन नहीं है। दामों में इस प्रकार की सर्वव्यापी कटौती मुद्रा के अवमूल्यन से आसानी से हो जाती है, क्योंकि अवमूल्यन का प्रभाव सभी पर एक सा और एक साथ पड़ता है।
ग्रीस को चाहिए कि इंग्लैंड की तर्ज पर यूरोपीय संघ की ऊपरी स्तर की सदस्यता त्याग दे और निचले स्तर की सदस्यता बनाए रखे। देश में प्रचलन में यूरो को निरस्त करके अपनी मुद्रा ड्राक्मा को पुनर्स्थापित करे। फिर ड्राक्मा का अवमूल्यन कर दे। तब वह देश संकट से बाहर आ सकेगा।
परंतु मुद्रा कोष को यह रास्ता पसंद नही। इसका कारण यह है कि ड्राक्मा के प्रचलन के बाद ग्रीस मांग करेगा कि यूरो में लिए गए ऋण का पेमेंट वह ड्राक्मा में करेगा, जैसे चांदी के सिक्के के लिए ऋण का रीपेमेंट तांबे के सिक्के से किया जाए। ऐसा होने पर मुद्रा कोष समेत तमाम बैंकों को भारी घाटा लगेगा। मुद्रा कोष की प्राथमिकता बैंकों की पूंजी की सुरक्षा है, न कि ग्रीस को संकट से उबारना। इसलिए मुद्रा कोष इस रास्ते का विरोध कर रहा है। मेरा मानना है कि अंतत: ग्रीस को साझा मुद्रा यूरो को त्यागना ही होगा। प्रश्न मात्र यह है कि यूरो को आज त्यागा जाएगा अथवा दो वर्ष और कष्ट झेलने के बाद। ग्रीस की जनता द्वारा आईएमएफ के राहत पैकेज को नकारने से इस तरफ बढ़ने का रास्ता खुल गया है।
इस प्रकरण में भारत के लिए भी सबक है। मोदी की दृष्टि विकसित देशों की ओर है। वे इनसे भारी मात्रा में पूंजी प्राप्त करना चाहते हैं। यह तो उसी तरह हुआ कि उद्यमी उस जमींदार के पास ऋण लेने जाए, जिसकी जमींदारी खत्म होने को है। मोदी को समझना चाहिए कि मूल रूप से विकसित देशों का समूह संकट में है। इनसे भिक्षा मांगने के स्थान पर इन्हें एक झटका और देकर चित करना चाहिए, जिससे सही मायने में विश्व में आर्थिक समानता स्थापित हो।
-लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं।