नारी सशक्तिकरण: आत्मविश्वास का हाथ थामा तो डर भागा
बेटियां बोझ नहीं वे भी अपने पैरों पर खड़ा होना सीख चुकी हैं। घर की आमदनी में पूरा हाथ बंटा रही हैं। बॉर्डर से लेकर 'डिलीवर गर्ल' तक किसी भी पेशे में भी पीछे नहीं है।
बेटी के पैदा होते ही माथे पर खर्च बढ़ जाने की सलवटें पड़ जाती हैं। परिवार में उसके भविष्य की सोच और दहेज की गठरी तैयार करने का बोझ सिर पर बंधा महसूस करने लगते हैं। करें भी क्यों न समाज की आत्मविश्वास का हाथ थामा तो डर भागा प्रथाओं के साथ जन्मों का गठजोड़ जो निभाना है। भले ही फिर परिवार की आमदनी सिर्फ दो वक्त की रोटी के योग्य क्यों न हो। लेकिन अब इस सोच से उबरना होगा। बेटियां बोझ नहीं वे भी अपने पैरों पर खड़ा होना सीख चुकी हैं। घर की आमदनी में पूरा हाथ बंटा रही हैं। बॉर्डर से लेकर 'डिलीवर गर्ल' तक किसी भी पेशे में भी पीछे नहीं है।
ऑनलाइन के इस जमाने में क्लिक कीजिए और कुछ देर में प्रॉडक्ट आपके पते पर डिलीवर, बात सामान्य सी है। लेकिन यदि आपका प्रॉडक्ट आपके घर या ऑफिस में डिलीवर करने के लिए लड़के की जगह लड़की पहुंचे तो आप सोचेंगे, कुछ अलग सा महसूस करेंगे। बदलते जमाने और सशक्त दिशा में होते इस बदलाव को सम्मान देकर स्वीकार करेंगे। करना भी चाहिए क्योंकि बेटियां अब बोझ नहीं है।
बदलने से ही तो समानता आएगी:
हम समानता की तो बात करते हैं लेकिन हर काम के लिए सिर्फ लड़के ही क्यों योग्य समझे जाते हैं। मेरे घर में छोटे भाई-बहन हैं और मां-पापा। पापा की सालभर में एक लाख रुपये की भी आमदनी नहीं होगी। अब ऐसे में ये तो नहीं कि यदि घर में बड़ा बेटा या भाई होगा वही कमाएगा। मेरी भी जिम्मेदारी है और ऐसे फील्ड में जहां अब तक सिर्फ लड़के ही काम करते रहे हैं वहां पहचान बनाना अच्छा भी लगता है। स्कूटी स्टार्ट कर हेलमेट पहनते हुए याशमीन मुस्कुराते हुए बड़े विश्वास के साथ अपनी बात कह गईं। दक्षिणी दिल्ली के साकेत में 'ईवेन कार्गो' के आफिस में याशमीन जैसी ही 5 और लड़कियां हैं, जो सुबह-सुबह अपनी स्कूटी पर पहुंच जाती हैं और दिनभर के लिए प्रॉडक्ट डिलीवर करने के लिए निकल जाती हैं। यहां सिर्फ ये लड़कियां ही काम करती हैं। इसी तरह प्रियंका, पल्लवी और पूजा बताती हैं कि हमें दिल्ली की सड़कों पर स्कूटर चलाने में डर लगता था।
घर में मम्मी-पापा भी मना करते थे। सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते थे। अब धीरे-धीरे आत्मविश्वास बढ़ता गया और डर निकलता गया। अब आराम से कहीं के भी पते पर प्रॉडक्ट डिलीवर के लिए निकल पड़ते हैं। इवेन कार्गो (प्रॉडक्ट डिलीवर कंपनी) के संचालक योगेश कुमार इस पहल के बारे में बताते हैं कि हम बहुत टकसाली कहें तो
रूढ़ीवादी सोच रखने वाले समाज में रहते हैं। जो चला आ रहा है बस उसे लेकर चलना चाहते हैं। कुछ बदलने की सोच आती भी है तो कदम उठाने की माद्दा नहीं रखते। सभी बस फॉलोअर बने रहते हैं। हालांकि आधी आबादी खुद आगे बढ़ रही है बस हर दिशा में बढ़ते उसके कदमों को समाज को भी स्वीकृत करने की जरूरत है। जिंदगी में
हर किसी को मौका मिलना चाहिए। मैंने भी इवेन कार्गो और 'ओए दिल्ली' संस्था के जरिये लड़कियों को वही मौका देने का प्रयास किया है। प्रॉडक्ट डिलीवर गर्ल मिशन से पहले 100 लड़कियों को तीन स्तर पर प्रशिक्षण दिया गया था। पहला दो पहिया वाहन चलाना, दूसरा आत्मसुरक्षाऔर तीसरा लॉजिस्टेक और कम्युनिकेशन का। यह प्रशिक्षण निशुल्क, दिया गया था। इसके बाद सिर्फ 100 में से 10 लड़कियों ने प्रशिक्षण के बाद बतौर नौकरी पर इस आगे बढऩे की ललक, नहीं मिलता साथ चुना। फिलहाल उनमें से छह लड़कियां 10 हजार रुपये प्रति माह के खर्च पर काम कर रही हैं। हम जल्द ही इसे मुंबई में भी शुरू करने वाले हैं। ऐसा नहीं है जिन लड़कियों ने प्रशिक्षण लिया और बाद में इसे पेशे के तौर पर नहीं चुना वे ऐसा करना नहीं चाहती थीं।
लेकिन घर-परिवार समाज की सोच ने उन्हें कहीं न कहीं आगे नहीं बढऩे दिया। वे अपने परिवार के लिए ही कुछ करना चाह रही थीं। क्योंकि प्रशिक्षण लेने वाली और फिलहाल नौकरी करने वाली सभी लड़कियां कम आय वर्ग वाले परिवारों से हैं।
मनु त्यागी, नई दिल्ली