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यही है मुहूर्त, करें शक्ति की उपासना

वे कठिन उपवास भले ही न करें, न चढ़ाएं देवी मंदिरों में सोने-चांदी के छत्र, पर अपनी बेटियों के अधिकारों के लिए डटकर खड़े हैं। पांव पूजने से ज्यादा जरूरी समझी उन्होंने बेटियों के सपनों की उड़ान...

By Srishti VermaEdited By: Published: Sat, 01 Apr 2017 10:32 AM (IST)Updated: Sun, 02 Apr 2017 12:04 PM (IST)
यही है मुहूर्त, करें शक्ति की उपासना

देवी आराधना का स्थल है जम्मू। हर साल यहां करोड़ों लोग वैष्णों देवी मंदिर में दर्शन कर नन्हीं कन्याओं की उपासना करते हैं। यहीं जम्मू-कश्मीर की प्रशासनिक अधिकारी स्मिता सेठी नवरात्र की पूर्व संध्या पर कविता लिखती हैं, कैसे करें अर्चना...। अपनी कविता में वह बेहद निर्मम शब्दों में पूछती हैं कि जिस कन्या की हमारे समाज में हत्या हो रही है, उसकी उपासना का ये स्वांग हर बार नवरात्र में हम कैसे कर पाते हैं। अगर देवी उपासना सिर्फ स्वांग ही नहीं है तो बेटियों की किलकारी अपने आंगन में भी गूंजनी चाहिए। दुर्गा अष्टमी और महानवमी पर कन्या पूजन के लिए लड़कियां ढूंढ़ने से पहले अपने आंगन में देखें कि क्या यहां किसी बेटी की किलकारी सुनाई देती है। यदि नहीं तो अधूरी है देवी की यह उपासना।

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स्नेह सेतु हैं बेटियां
एक निजी कंपनी में डिजाइन इंजीनियर इंदु प्रियदर्शिनी जम्मू- कश्मीर के दूर दराज इलाकों के लिए स्टील ब्रिज डिजाइन करती हैं। इससे पहले वह दिल्ली की एक मल्टी नेशनल कंपनी में कार्यरत थीं, पर जब उनकी मम्मी बीमार रहने लगीं तो वह कॅरियर में उन्नति की तमाम संभावनाओं से समझौता कर घर लौट आईं। इंदु कहती हैं, ‘मेरे पापा योगराज पाधा असिस्टेंट डिस्ट्रिक्ट मेडिकल ऑफिसर और मम्मी देवकन्या शर्मा हेड मिस्ट्रेस के पद से रिटायर हुई हैं। मैं चार बहनों में सबसे छोटी हूं। बचपन से ही हमारे घर में लड़कियों की चहल-पहल रही है। मम्मी-पापा ने बहुत लाड़-प्यार से हम चारों बहनों की परवरिश की और हमें अपने पैरों पर खड़ा किया। अब हमारी बारी है कि हम उन्हें अकेला न छोड़ें और उनकी हर छोटी-बड़ी जरूरत के समय उनके साथ हों। बस यही सोचकर मैं दिल्ली से वापस जम्मू चली आई। यह माता-पिता का आशीर्वाद ही है कि मुझे यहां भी बहुत अच्छा अवसर मिला।’

हमारा गर्व हैं हमारी बेटियां
वाराणसी के वरिष्ठ परामर्शदाता डॉ. डी. एन. गुप्ता और उनकी पत्नी वीना गुप्ता को अपनी इकलौती बेटी पर गर्व है। डॉ. गुप्ता कहते हैं कि कई बार लोग हमसे कहते हैं कि आपकी एक बेटी है अफसोस नहीं होता। इस बात पर हम यही कहते हैं कि सोच का फर्क है। हमें एक बेटी है इस बात का गर्व है न कि अफसोस। हमारी बेटी इस वक्त लखनऊ में मेडिकल की पढ़ाई कर रही है और हमारा सपना है कि वह सुपर स्पेशलाइज्ड डॉक्टर बने।’

मेरे साथ है पिता का नाम
मथुरा के केआर डिग्री कालेज में प्रोफेसर मोनिका दीक्षित आज भी अपने नाम के साथ पिता का सरनेम लगाती हैं। वह कहती हैं कि पापा से ही वह आत्मविश्वास पाया कि आज भी अपने फैसलों से डिगती नहीं हूं। बेटियां कोई वस्तु नहीं कि दान में दी जाएं और अपना परिवार व कुलनाम सब भूल जाएं। जब मेरे दो बेटियां हुईं तो मायके और ससुराल दोनों जगह उत्सव मनाया गया। बड़ी बेटी नंदिनी 15 साल की है और छोटी नंदिता 12 साल की। कभी कोई कहता भी कि तीसरा चांस लो तो मेरा जवाब होता था कि बेटा जीवन में ऐसा कौन सा सुख दे सकता है, जो बेटी नहीं दे सकती। मैंने अपनी बेटियों को वही खुलापन दिया है, जो मेरे परिवार में मुझे मिला। बाजार जाने से लेकर घर में सपोर्ट करने तक वे हमेशा मेरा हाथ बंटाती हैं।’

प्यार का है एक ही बिंदु
जालंधर के अजीत व अल्पना बांसल की बेटी अरुण्या बांसल अब बीबीए कर रही है। बारहवीं में 10 सीजीपीए लेकर पास हुई अपनी बेटी पर उन्हें गर्व है। अजीत कंस्ट्रक्शन बिजनेस में हैं और फर्नीचर बिजनेस से जुड़ी अल्पना इंटीरियर डिजाइनर भी हैं। उनका कहना है कि अब समाज बदल रहा है। पढ़े-लिखे परिवारों में बेटे- बेटी में ज्यादा फर्क नहीं किया जाता। लड़कियों ने हर क्षेत्र में स्वयं को साबित किया है। एक ही बच्चा रखने का फैसला हमने इसलिए किया था, क्योंकि जनसंख्या नियंत्रण की बात करते तो सभी हैं, लेकिन उसे गंभीरता से लेते हुए परिवार को सीमित रखने में कम ही लोग विश्वास रखते हैं। बेटी के जन्म से पहले ही हमने मन बना लिया था कि बेटी हो या बेटा, हमारी फैमिली ‘सिंगल चाइल्ड फैमिली’ ही रहेगी। हमें अपने निर्णय पर गर्व है, क्योंकि हम अपनी इकलौती बेटी को बेहतर समय दे पाए और अच्छी शिक्षा मुहैया करवा पा रहे हैं।

बेटियां सब जानती हैं
दिल्ली की अंजु शर्मा सजग लेखिका होने के साथ- साथ स्नेहमयी मां भी हैं। वह अपने अधिकारों के साथ ही अपनी जिम्मेदारियों को भी बखूबी समझती हैं। वह कहती हैं कि मेरी सासू मां बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की हैं। कन्या पूजन पूरी आस्था के साथ करती हैं, लेकिन जब घर में दो पोतियों का आगमन हुआ तो अनुभव कुछ और ही रहे। वह कहती हैं, ‘सासू मां टिपिकल पुरातनपंथी हैं। उन्हें पोता चाहिए था तो जाहिर है उन्होंने बच्चियों का स्वागत मन से नहीं किया। विशेषकर दूसरे बच्चे के लिए मुझ पर बहुत दबाव था। दूसरी बेटी न घर, न समाज कहीं स्वीकार्य नहीं। मेरे पति और मुझे बहुत अफसोसनाक हालात का सामना करना पड़ा। बेटियों के खानपान, पढ़ाई-लिखाई और उनके रहन- सहन को लेकर मुझे और मेरे पति को अजीब से रवैये से जूझना पड़ा। मेरी पहली बेटी के समय भी परिजनों की आकांक्षाएं बेटा होने की थीं, पर दूसरी बेटी का होना तो किसी दुर्घटना से कम नहीं था। हमने भ्रूण जांच के लिए सख्ती से मना किया तो हमें ‘पढ़े-लिखे मूर्खों’ की संज्ञा से नवाजा गया। लोग ऐसे अफसोस जाहिर करने आते कि पूछो मत। जुमले और मातम पुर्सी करते पड़ोसी व रिश्तेदार हमारे लिए दुखद आश्चर्य से कम नहीं थे। हमें सख्त रवैया अख्तियार करना पड़ा कि हमें अपनी बच्चियों से प्यार है और हमें बेटा हो या बेटी इससे फर्क नहीं। हमारे समाज में लिंगभेद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि पढ़े-लिखे लोग भी इससे दूर नहीं रहते। बेटियों का पालन-पोषण अच्छा हो तो शिकायत, जन्मदिन मनाओ तो शिकायत, अच्छे स्कूल में दाखिला कराया तो शिकायत... मानो हमारी बेटियां पूरे समाज पर बोझ हैं। हमने अपनी बेटियों के सम्मान के लिए लगातार परिवार से लड़ाई की और अपने फैसले पर कायम भी रहे। मुझे गर्व है मैं विशाखा और देवान्या दो बेटियों की मां हूं। इस भेदभाव को उन्होंने भी देखा है, सुना है, जो लोग बहुत प्यार करते हैं, वे भी बेटा न होने का ताना मार ही देते हैं। वे देखती हैं, समझती हैं कि कैसे हमारी तमाम उपलब्धियां इसे कमी मानकर कमतर करार दी जाती रही हैं।

दादी, नानी ने दिया आशीर्वाद
मेरठ, सेंट्रल मार्केट निवासी पूनम शर्मा अपना बुटीक चलाती हैं व डॉ. ललित मोहन शर्मा एनएएस डिग्री कॉलेज मेरठ से प्राचार्य के पद से सेवानिवृत हैं। इनके यहां जब पहली बिटिया हुई तो सबने कहा कि चलो घर में लक्ष्मी आई है। इसके बाद जब दूसरी भी बेटी हुई तो दादी-नानी को थोड़ा अफसोस जरूर हुआ, लेकिन कहा कि चलो कोई नहीं तीसरे चांस में बेटा हो जाएगा। घर में तीसरी बिटिया के होने पर दोनों ओर से कोई कमेंट नहीं आया, लेकिन नानी-दादी ने यह जरूर कहा कि अब बेटियों को काबिल बनाना है। उन्हीं के आशीर्वाद से बड़ी बेटी विधा शर्मा बीडीएस इंटरनेशनल स्कूल में अंग्रेजी की शिक्षिका हैं। दूसरी बेटी अपूर्वा मोहन अहलावत ने कॉलेज टॉप किया व बैंगलोर में टॉमी हिल फिगर में सीनियर मैनेजर हैं। छोटी बेटी प्रभुता मोहन शर्मा यूएस में एचएंडएन में विजुअल मर्चेंडाइजर हैं। पूनम कहती हैं, ‘जब हमारी बेटियों का अच्छे पदों पर चयन हुआ तो पड़ोस वालों को यह संदेश जरूर गया कि काबिलियत का कोई जेंडर नहीं होता।’
इनपुट वाराणसी से वंदना सिंह, मथुरा से रैना पालीवाल, जालंधर से
वंदना वालिया बाली, मेरठ से तरुणा तायल

बहार हैं कोयल और बुलबुल
शास्त्रीनगर मेरठ निवासी डॉ. अनुज गौड़ सुशीला जसवंत राय हॉस्पिटल में प्रबंधक हैं और उनकी पत्नी शुचिता गौड़ अध्यापिका हैं। उनकी दो बेटियां अद्विका और ओजस्वी हैं। डॉ. अनुज अपने माता-पिता के अकेले बेटे हैं और उनकी पत्नी तीन बहने हैं। उनके माता-पिता ने बहू को बेटी की तरह अपनाया और ससुराल पक्ष ने दामाद को बेटे की तरह। पहली बेटी अद्विका के होने पर उनके माता-पिता, नाना-नानी बहुत खुश हुए कि घर में लक्ष्मी आ गई। हां पास- पड़ोस वालों ने जरूर कहा कि पहला बेटा होता तो ज्यादा अच्छा होता, लेकिन इस दंपति की नजर में बेटा ऐसा कोई नया काम नहीं कर सकता, जो बेटियां न करती हों। हमने अपनी पहली बेटी का घर का नाम बुलबुल रखा है, जो सात साल की है। दूसरी बेटी के जन्म पर भी हमने उतनी ही खुशी मनाई। उसके दादादादी और नाना-नानी में से किसी को भी इस बात का मलाल नहीं कि दूसरी भी बेटी आई है। दूसरी बिटिया का नाम हमने कोयल रखा है।

बेटियां बनेंगी कीर्ति पताका
याज्ञसेनी, मृगांका और मृत्युंजया ये हैं पूजा चतुर्वेदी भट्ट की तीन बेटियों के नाम। उन्हें और उनके पति ललित भट्ट को विश्वास है कि उनकी तीनों बेटियां भविष्य में उनकी कीर्ति पताका बनेंगी। जम्मू के एक स्कूल में इकोनॉमिक्स की लेक्चरर पूजा कहती हैं, ‘सौभाग्य से मेरे परिवार में मुझे उस तरह की मानसिक प्रताड़ना का सामना नहीं करना पड़ा, जैसा अधिसंख्य परिवारों में दूसरी और तीसरी बेटी के जन्म पर करना पड़ता है। मेरी तीनों ही बेटियों के जन्म पर भव्य उत्सव का आयोजन हुआ और मैंने तय किया है कि मैं अपनी बेटी का जनेऊ संस्कार भी करूंगी। सिर्फ सोसायटी को दिखाने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें अपनी गौरवशाली संस्कृति से परिचित करवाने के लिए, जहां स्त्रियों को ऋषियों और मनीषियों की उपाधि भी प्राप्त हुई है। हमारे समय की स्त्रियां भी विदूषियां हैं। वे अपनी उपस्थिति से समाज की सोच को बदल रहीं हैं। बहुत हद तक मीडिया और मनोरंजन इंडस्ट्री भी लोगों की सोच में बदलाव लायी है।’

जरूरत है बदलाव की
प्रो. विश्वरक्षा, अध्यक्ष, सोशियोलॉजी विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय
हम अपनी पिछली पीढ़ी से ज्यादा सौभाग्यशाली हैं। उन्हें जिस तरह का भेदभाव ग्रस्त माहौल मिला, शुक्र है कि हम उससे बाहर आ गए हैं, लेकिन अब भी बहुत से बदलाव की जरूरत है। समय बदल रहा है। हमें उसके बदलाव के लिए खुद को भी तैयार रखना होगा। मैं तो खासतौर से लड़कों को कहती हूं कि अपने भविष्य को गंभीरता से लेना शुरू कर दो वरना आने वाले समय में बहुत पछताना पड़ेगा। हर जगह उपलब्धियों के केंद्र में लड़कियां ही हैं।

मानसिकता का इलाज जरूरी
वाराणसी में समाजसेवी अंजलि अग्रवाल व उनके पति बीएचयू में चेस्ट फिजिशियन डॉ. एस. के. अग्रवाल की दोनों बेटियां डॉक्टर हैं। अंजलि बताती हैं कि जब बड़ी बेटी का जन्म हुआ तो ऐसा लगा कि ईश्वर ने सारी मनोकामना पूरी कर दी। तब तक समाज में बेटियों के जन्म को लेकर बदलाव आने लगा था। मेरी बेटी के जन्म पर मेरे सास-ससुर, मां पापा, पति और पूरा परिवार यहां तक कि रिश्तेदार भी खुश थे। मेरी दोनों ननदों को घरवालों ने खूब पढ़ाया और चिकित्सक बनाया। उस जमाने में परिवार की सोच नजीर की तरह थी। मेरे पति दो भाई हैं। उनकी भी दो-दो बेटियां हैं। उन लोगों ने भी बेटी में ही अपना संसार देखा। मायके में मैं दो भाइयों की अकेली बहन थी, वहां भी खूब लाड मिला।’ अपनी दूसरी बेटी के जन्म के समय को याद करते हुए अंजलि कहती हैं, ‘ऑपरेशन थिएटर में जब थोड़ा सा होश आया तो मैंने डॉक्टर से पूछा कि क्या हुआ है तो डॉक्टर का जवाब था कि ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली। मैं गर्भावस्था के पूरे समय में अपनी बेटी के लिए एक छोटी बहन ही मांगती रही थी।’ डॉ. अग्रवाल कहते हैं, ‘बेटियां ही नहीं, हम भी बेटियों के बहुत लाड़ले हैं। हमें अगर छींक भी आ जाए तो दोनों घबरा जाती हैं।’

दबाव का जवाब था
मथुरा की शिप्रा राठी ने अपने बीते अनुभवों से आत्मविश्वास हासिल किया है। इसी आत्मविश्वास में वह कहती हैं, ‘पहली बेटी होने के बाद जब मैं दोबारा गर्भवती हुई तो परिजनों ने मुझसे अल्ट्रासाउंड करवाकर भ्रूण की जांच करवाने को कहा, पर मैंने साफ मना कर दिया। पति ने भी मुझे सपोर्ट किया। जब दोबारा भी बेटी हुई तो सब शांत हो गए। सास-ससुर के अलावा कोई मिलने तक नहीं आया। किसी को खुशी नहीं थी। उसके बाद परिवार, समाज ने बेटे के लिए बहुत दबाव बनाया, पर मेरे पास जवाब था। मैंने कहा कि मुझे ये लिखकर दे दो कि बेटा बड़े होकर मुझे सपोर्ट करेगा। मैं लिखकर दे सकती हूं कि मेरी बेटियां मुझे बेटे की कमी महसूस नहीं होने देंगी।’ उनके इस दृढ़ निश्चय ने जैसे लोगों की जुबान पर ताला लगा दिया। शिप्रा मथुरा के खजानी वुमेंस इंस्टीट्यूट की संचालक हैं और वह अपनी दोनों बेटियों वंशिका और शिविका को बेटियों की ही तरह पाल रही हैं। वह कहती हैं, ‘नारीत्व बहुत बड़ा गौरव है, कोई अभिशाप नहीं। मैं अपनी लाड़लियों को शिक्षा के साथ संस्कार भी दे रही हूं। उनमें आत्मविश्वास का संचार कर रही हूं, ताकि वे बड़े होकर आत्मनिर्भर बन सकें।’

धी की मां है रानी
कमलेश जैन , अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय लोक में कहावत है, ‘धी की मां रानी’, पर इसी कहावत की अगली पंक्ति बेहद कष्ट पहुंचाती है, ‘भरे बुढ़ापे पानी’ अर्थात बेटियां अपनी मां को भरपूर सुख देती हैं, लेकिन जब बुढ़ापे में मां को सचमुच उनके सहारे की जरूरत होती है तो वे ब्याह कर पराई हो जाती हैं, पर अब ऐसा नहीं है। समाज बदल रहा है। कानून भी बेटियों और बेटियों के मां-बाप को समाज में गरिमामय जीवन जीने का अधिकार देता है। शिक्षा के अधिकार से लेकर संपत्ति के अधिकार में भी बेटियों को बेटों की ही तरह बराबर का अधिकार है। 2005 के एक्ट में स्पष्ट कहा गया है कि जैसे बेटा जन्मते ही अपनी पैतृक संपत्ति का हकदार होता है, उसी तरह बेटी भी जन्म के साथ ही अपनी पैतृक संपत्ति में हकदार है। इसके साथ ही शादी के बाद भी यदि लड़की को वह अधिकार दिए गए हैं तो उस पर यह जिम्मेदारी भी है कि वह अपने माता-पिता का सहारा बने। साथ रखने से लेकर, गुजारा भत्ता देने तक लड़कियों के लिए भी वे सभी दायित्व तय किए गए हैं, जो लड़कों के लिए हैं। पिता या दादा यदि कोई कर्ज छोड़ गए हैं तो उसे चुकाने में भी बेटी के दायित्व बेटे की ही तरह हैं।

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