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सपनों को मिले हैं पंख अपनो के संग

महिलाओं के महत्वाकांक्षी होने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें रिश्तों की कद्र नहीं। हो सकता है कि वक्त की कमी और काम के दबाव की वजह से वह प्रियजनों के लिए वक्त न निकाल पाती हों, पर इसका मतलब यह नहीं कि उनका प्यार कम हो गया।

By Babita kashyapEdited By: Published: Sat, 22 Oct 2016 08:14 AM (IST)Updated: Sat, 22 Oct 2016 08:25 AM (IST)

एक मल्टीनेशनल कंपनी में प्रतिष्ठित पद पर काम करने वाली नंदिता को लंच टाइम में चुप-चुप सा

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देखकर सहकर्मी शुभांगी उसकी उदासी जानने की कोशिश करती है। वह नंदिता को बार-बार कुरेदती है कि क्या हुआ है,तुम इतनी उदास क्यों हो? नंदिता थोड़ी देर शुभांगी के सवालों को नजरअंदाज करती हुई सिर्फ आंखों को झुकाकर सब कुछ ठीक होने की बात कहती हैं। मगर ऑफिस में बड़े से बड़े प्रोजेक्ट को बहुत धैर्य और समझदारी से निपटाने वाली नंदिता की आंखों से ठीक होने का यह जवाब शुभांगी को कुछ अखरता है।

शुभांगी दोबारा नंदिता से उसकी परेशानी का कारण पूछती हैं। इस बार नंदिता अपनी परेशानी को छिपा नहीं

पाती और कुछ देर की खामोशी के बाद आखिरकार बोल पड़ती हैं। वह शुभांगी से कहती हैं कि उसके परिवार

और रिश्तेदारों को लगता है कि वह घर से ज्यादा ऑफिस को महत्व देती हैं। वह जान-बूझकर परिवार

की किसी छोटी या बड़ी खुशी का हिस्सा नहीं बनतीं। यह बात कहते-कहते शुभांगी की आंखों से आंसू छलक

पड़ते हैं, जबकि यह सच नहीं है। मैं उन लोगों को यह कैसे समझाऊं कि मेरे लिए आज भी मेरा परिवार और

मेरे करीबी उतने ही प्रिय हैं, जितने कि पहले हुआ करते थे। हां, कभी-कभी काम का दबाव बढऩे से मैं ऐसे

मौकों पर उपस्थित नहीं रह पाती हूं। इस वजह मुझे आत्मकेंद्रित कहना तो ठीक नहीं है। अब तुम्हीं बताओ,

मैं क्या करूं? शुभांगी नंदिता की पूरी बात सुनती हैं और फिर उसे प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ के बीच

सामंजस्य बिठाने की सलाह देती हैं। शुभांगी की तरह अमूमन यह स्थिति हर कामकाजी महिला के सामने तब

आती है, जब वह कॅरियर में तरक्की की सीढ़ी चढ़ रही होती है। उस वक्त उसके सामने निजी रिश्तों को सहेजना

चुनौती बन जाता है। इसकी वजह से उसे कहीं न कहीं मानसिक तकलीफों से भी गुजरना पड़ता है। ऐसे में वह

समझ नहीं पाती कि क्या करे? मगर इनमें कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं, जो इस उलझन को बड़े सलीके से सुलझा

कर आगे बढ़ रही हैं।

तू मेरा सहारा है मैं तेरा

महिलाओं को यह बात समझनी होगी कि कॅरियर में सफल होने की चाह रखने में कुछ गलत नहीं है। हां, अक्सर ऐसी स्थिति आती है जब ऑफिस में काम का दबाव होता है या फिर घर पर हमारी मौजूदगी जरूरी होती है, लेकिन हम चाहकर भी वक्त नहीं निकाल पाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में परिजनों को समझाना थोड़ा मुश्किल हो

जाता है। कभी-कभी तो वे नाराज भी हो जाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि इन परिस्थितियों के लिए

आप खुद को ही जिम्मेदार मानकर परेशान होती रहें।

ऐसी परिस्थिति से निपटने के लिए शांत होकर सोचें और अपनी उलझन किसी से साझा करें। वह कोई भी हो

सकता है, जिसे आप अपनी बात समझा सकें। प्रोफेशनल और निजी जिंदगी के बीच इसी सपोर्ट सिस्टम को तलाश कर आगे बढ़ रही हैं पुणे की इंपॉवरमेंट टेक्नोलॉजी में एचआर मैनेजर स्मृति सैनी। मुंबई से ताल्लुक रखने वाली स्मृति को पति जीतेंद्र यादव की नौकरी की वजह से पुणे जाना पड़ा। पति के साथ-साथ उन्हें भी वहां अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई। धीरे-धीरे काम में व्यस्तता बढ़ी तो परिजनों से दूरी बढ़ती चली गई। वह कहती हैं, मैं और मेरे पति दोनों अपने घरों से दूर थे। दोनों ही व्यस्त शेड्यूल होने की वजह से चाहकर भी अपने करीबियों के लिए वक्त नहीं निकाल पाते थे। घर में कोई महत्वपूर्ण समारोह होने के बावजूद मैं नहीं पहुंच पाती थी। कभी तो घर के लोग और रिश्तेदार मेरी बात समझ जाते थे, लेकिन ऐसे मौके भी आए जब मेरे करीबी ही मेरे काम को न समझ पाने के कारण नाराज हो गए। ऐसे में मेरा किसी काम में मन नहीं लगता था। मैं उदास रहने लगी। मेरे पति ने मेरी उदासी को पढ़ते हुए इसका तरीका खोज निकाला। उन्होंने कहा कि जब तुम्हारे घर पर कोई फंक्शन हो और तुम्हारे पास छुट्टी न हो तो मैं छुट्टी लेकर तुम्हारे घर चला जाऊंगा। वहीं कभी मेरे घर पर कोई समारोह और मुझे समय न मिल सके तो तुम चली जाना। आखिरकार हम एक-दूसरे का सहारा बनकर प्रियजनों की नाराजगी दूर कर सकते हैं। स्मृति बताती हैं कि अभी कुछ दिनों में मेरे भाई की शादी है, जिसमें मैं तो काम की वजह से नहीं पहुंच सकती, लेकिन हां मेरे पति वहां जरूर जाएंगे।

प्लानिंग रखें मजबूत

भारतीय समाज में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं से हमेशा दोगुनी अपेक्षा की जाती है। उन्हें परिवार और ऑफिस दोनों जगह खुद को साबित करना होता है। इन दोनों में अगर किसी भी एक जगह गलती से कोई कमी रह जाए तो स्थिति संभालना मुश्किल हो जाता है। बेहतर तालमेल और मजबूत प्लानिंग से दोनों जगह कामयाबी पाई जा सकती है। इसी रणनीति और सूझबूझ के साथ कॅरियर में लगातार आगे बढ़ रही हैं दिल्ली के श्रीबालाजी एक्शन मेडिकल इंस्टीटयूट में मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉ. पिंकी यादव। वह बताती हैं कि अक्सर काम की वजह से घर या परिजनों के लिए वक्त नहीं निकलता है या फिर काम के दबाव की वजह से आप घर पर होकर भी ऑफिस के काम में जूझे रहते हैं तो ऐसी स्थिति में घर वालों से पहले लोग राय बनाना शुरू कर देते हैं कि आप आत्मकेंद्रित हैं या सिर्फ कॅरियर को ही वरीयता देती हैं। इससे निपटने के लिए जरूरी है कि दोनों में बेहतर

तालमेल हो। यह तभी संभव है जब आपकी दिनभर की प्लानिंग मजबूत हो। मेडिकल एक ऐसा प्रोफेशन है, जहां

24 घंटे आप पर जिम्मेदारी तय रहती है। कभी-कभी तो आपको अतिरिक्त समय भी देना पड़ता है। उसके बावजूद मैं पूरे दिन के शेड्यूल के बीच कुछ वक्त ऐसा प्लान करती हूं कि पूरे दिन में कुछ वक्त घरवालों के साथ जरूर बिताऊं। शाम की चाय या फिर रात के खाने पर हम सभी एक साथ बैठ सकें, बात कर सकें कि हम लोगों का पूरा दिन कैसा गुजरा। पति के व्यस्त शेड्यूल और बच्चों की पढ़ाई के बारे में जान सकूं। वहीं अपने दिल की बातें भी कह सकूं। फुर्सत के पलों में अपनों का साथ और उनसे बात करना मुझे अगले दिन के लिए मानसिक रूप से मजबूत बनाता है। अगर किसी दिन मैं यह वक्त नहीं निकाल पाती हूं तो इस कमी को मेरे पति पूरा करते हैं। हिंदुजा अस्पताल में सीएमओ मेरे पति बच्चों के साथ वक्त बिताते हैं। वह उस वक्त पिता का प्यार और मां की कमी पूरी करने की कोशिश करते हैं।

रविवार दूर करेगा दूरियां

अब महिलाएं हर क्षेत्र में खुद को साबित कर रही हैं। वे आगे बढ़ रही हैं। बेहतरीन काम कर रही हैं। एक तरफ

जहां प्रोफेशनल लाइफ में बड़े से बड़े प्रोजेक्ट को अपनी सूझबूझ से संभाल रही हैं तो वहीं रिश्तों को भी बखूबी निभा रही हैं। उन्हें पता है कि कैसे अपने परिजनों के चेहरों पर मुस्कान लाई जा सकती है। इसके लिए वह हर संभव प्रयास करती हैं। अपनी व्यस्त दिनचर्या के बीच कुछ ऐसे ही अनूठे प्रयासों के साथ अपने सपनों का आसमान पा रही हैं इंफोसिस के जयपुर ऑफिस में सीनियर कंसल्टेंट तन्वी मक्कड। वह कहती हैं कि रविवार एक ऐसा दिन है, जो दिलों की दूरियों को कम करता है। मैं इस दिन को ज्यादा से ज्यादा भुनाने की कोशिश करती हूं, ताकि अपने करीबी लोगों के साथ अच्छा वक्त बिता सकूं। यही कारण है कि मैं सप्ताह के खत्म होने का ब्रेसबी से इंतजार करती हूं, कब रविवार आए और कब मैं अपने माता-पिता, भाई-बहन या फिर दोस्तों के साथ कहीं बाहर घूम सकूं या घर पर ही कुछ बेहतर वक्त बिता सकूं, क्योंकि यही एक दिन है, जो छह दिनों के बीच रही दूरियों की खाई को कम करता है।

इसीलिए मैं तो हर सप्ताह रविवार की प्री-बुकिंग करके चलती हूं। इस दिन को परिवार के साथ कैसे बिताना है।

अगर इस दिन को लेकर ऑफिस के दोस्त कुछ प्लान करते हैं तो इस दिन मैं उनको भी मना कर देती हूं, क्योंकि फैमिली टाइम के बीच कुछ और मंजूर नहीं।

एक वक्त पर एक काम महिलाओं को यह बात समझनी पड़ेगी कि वे सुपरवूमन नहीं हैं। वे सब कुछ अकेले नहीं संभाल सकती हैं। इसलिए घर के कामों में अन्य सदस्यों की भी मदद लें। ऐसा करने से आप निश्चित तौर पर खुद को मानसिक तनाव से दूर रख पाएंगी, क्योंकि सब कुछ खुद करने की आदत से वक्त निकाल पाना मुश्किल होता है। फिर आप खुद को एक कटघरे में खड़ा कर लेती हैं। इन बातों का ध्यान रखें। इसी सोच के साथ देश-विदेश में अपनी कला का प्रदर्शन कर रही हैं पेंटर संगीता कुमार मूर्ति। बतौर पेंटर उनकी कला की तारीफ हर कोई करता है, मगर बेहतरीन कला की यह प्रेरणा मिलती है उन्हें अपनों के सहयोग और प्यार से। वह कहती हैं, मेरे करीबी लोग

मेरी पेंटिग्स को मुझसे ज्यादा प्यार करते हैं। उनके विश्वास और सहयोग का नतीजा है कि आज मैं खुद को इतना वक्त दे पा रही हूं। संगीता कहती हैं कि अक्सर ऐसा होता है कि किसी भी सोच को कैनवास पर उकेरने के लिए मैं कई-कई घंटे खो जाती हूं और एक अलग ही दुनिया में चली जाती हूं। पेंटिग की प्रदर्शनी के लिए मुझे शहर या फिर देश से भी बाहर रहना पड़ता है, मगर जैसे ही मैं घर वापस आती हूं तो फिर मैं अपने घर को वरीयता देती हूं। जब काम था, उस वक्त काम, लेकिन जब मैं घर पहुंच जाती हूं, उस वक्त सिर्फ घर।

नंदिनी दुबे

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