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अर्थराइटिस निराशा को बदलें आशा में

जोड़ों में सूजन और दर्द से संबंधित अर्थराइटिस नामक रोग के अनेक प्रकार हैं। इस मर्ज के कारण पीड़ित व्यक्ति का चलना-फिरना भी मुश्किल हो जाता है। दुनियाभर में खासकर भारत में अर्थराइटिस के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। तभी तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बीमारी के बढ़ने पर चिंता जताय

By Edited By: Published: Tue, 07 Oct 2014 10:59 AM (IST)Updated: Tue, 07 Oct 2014 10:59 AM (IST)

जोड़ों में सूजन और दर्द से संबंधित अर्थराइटिस नामक रोग के अनेक प्रकार हैं। इस मर्ज के कारण पीड़ित व्यक्ति का चलना-फिरना भी मुश्किल हो जाता है। दुनियाभर में खासकर भारत में अर्थराइटिस के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। तभी तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बीमारी के बढ़ने पर चिंता जतायी है। व‌र्ल्ड अर्थराइटिस डे (12 अक्टूबर) के मद्देनजर इस बीमारी के विभिन्न पहलुओं पर विशेषज्ञ डॉक्टरों की राय ली विवेक शुक्ला ने..

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ऑस्टियो अर्थराइटिस को दें आघात

आम तौर पर जिंदगी के उत्तरा‌र्द्ध (50 साल की उम्र के बाद) में जोड़ों (ज्वाइंट्स) की कार्टिलेज के घिसने या उनमें टूट-फूट होने के कारण ऑस्टियो-अर्थराइटिस की समस्या पैदा होती है। यह साइनोवियल ज्वाइंट्स से संबंधित बीमारी है, जो धीरे-धीरे शरीर पर अपना दुष्प्रभाव दिखाती है। इस रोग के बढ़ने पर सबकॉन्ड्रल नामक हड्डी मोटी हो जाती है, जिस कारण ऑस्टियोफाइट (हड्डी का एक अंश) का निर्माण होने लगता है और अंतत:जोड़ टेढ़े-मेढ़े या तिरछे हो जाते हैं।

नई रिसर्च के नतीजे

-कुछ खास जेनेटिक कारण भी ऑस्टियो-अर्थराइटिस के लिए जिम्मेदार हैं।

-मैनोपॉज या रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं के शरीर में होने वाले हार्मोनों के स्तर में बदलाव से महिलाओं में ऑस्टियो- अर्थराइटिस के होने का जोखिम बढ़ जाता है।

-मोटापे के कारण जोड़ों पर दबाव पड़ता है, जिसके कारण इन पर प्रतिकूल असर पड़ता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में मोटापे से ग्रस्त रहने की संभावना ज्यादा रहती है।

लक्षण

-देश की महिलाओं में ऑस्टियो-अर्थराइटिस का असर उनके हाथों और घुटनों पर कहीं ज्यादा पड़ता है।

-जोड़ों में दर्द और सूजन होना।

-जोड़ों में जकड़न होना या फिर इनका जाम होना।

-चलने-फिरने और दैनिक कार्र्यो को करने में दिक्कत महसूस होना।

-फर्श पर बैठने-उठने और पाल्थी मारकर बैठने में परेशानी महसूस

करना।

जांचें: विशेषज्ञ डॉक्टर जोड़ों की स्थिति का क्लीनिकल एग्जामिनेशन करते हैं कि जोड़ किस हद तक विकारग्रस्त हो चुके हैं और पीड़ित व्यक्ति की दिनचर्या पर कितना प्रतिकूल असर पड़ा है। इसके अलावा प्रमुख जांच एक्सरे है। रक्त परीक्षण भी कराए जाते हैं। रक्त परीक्षण से यह सुनिश्चित होता है कि किसी अन्य कारण से मरीज को अर्थराइटिस तो नहीं है।

शुरुआती इलाज: रोग की शुरुआती अवस्था में पेनकिलर्स का इस्तेमाल, मरहम या जेल, गर्म पानी से सिकाई या मालिश करना, सर्पोर्रि्टग उपकरण और व्यायाम कराए जाते हैं। इसके अलावा रोगी को कुछ विशिष्ट कॉन्डोजेनिक मेडिसिन्स (कार्टिलेज का पुनर्निर्माण करने वाली दवाएं) दी जाती हैं।

सर्जिकल इलाज: रोग की शुरुआती अवस्था में आर्थोस्कोपिक प्रक्रियाओं जैसे ज्वाइंट डिब्राइडमेंट (जोड़ के अंदर पालिश करना)आदि से कुछ हद तक राहत मिलती है।

हाई टिबियल ऑस्टियोटॅमी: अगर रोग का प्रकोप गंभीर अवस्था में नहीं हैं, तो और मरीज की उम्र लगभग 50 या 55 से कम है, तो इस स्थिति में हाई टिबियल ऑस्टियोटॅमी से राहत मिल जाती है और इस प्रकार जोड़ प्रत्यारोपण की संभावना स्थगित हो जाती है।

अंतिम कारगर इलाज: जब इलाज के उपर्युक्त विकल्पों से ऑस्टियो-अर्थराइटिस से ग्रस्त व्यक्तियों को राहत नहीं मिलती, तो इस स्थिति में पूर्ण जोड़ प्रत्यारोपण (टोटल ज्वाइंट्स रिप्लेसमेंट) किया जाता है। ऐसे प्रत्यारोपण में प्रमुख रूप से घुटने और कूल्हे के प्रत्यारोपण को शामिल किया जाता है। घुटना (नी)और कूल्हा (हिप) प्रत्यारोपण के क्षेत्र में नवीनतन तकनीकों से युक्त ऐसे कृत्रिम घुटने व कृत्रिम कूल्हे आ चुके हैं, जो कुदरती स्वस्थ घुटने व कूल्हे की तरह ही कार्य करते हैं।

(डॉ.संजय अग्रवाला सीनियर ज्वाइंट्स रिप्लेसमेंट सर्जन, पी.डी. हिंदुजा हॉस्पिटल, मुंबई)

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