टी.बी. पर करें पलटवार
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में टी.बी. की बीमारी आज भी एक महामारी के रूप में फैली हुई है। विश्व की एक बड़ी जनसंख्या टी.बी. के जीवाणुओं से संक्रमित है। दुनियाभर में प्रति सेकंड एक नया मनुष्य इससे संक्रमित होता है और एक मरीज एक वर्ष में लगभग
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में टी.बी. की बीमारी आज भी एक महामारी के रूप में फैली हुई है। विश्व की एक बड़ी जनसंख्या टी.बी. के जीवाणुओं से संक्रमित है। दुनियाभर में प्रति सेकंड एक नया मनुष्य इससे संक्रमित होता है और एक मरीज एक वर्ष में लगभग पंद्रह नए लोगों को संक्रमित करता है। आखिर इस रोग की जटिलताओं को कैसे नियंत्रित किया जाए...?
पूरे विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 13 लाख लोगों की
मृत्यु टी.बी.की बीमारी की वजह से होती है।
अकेले भारत में ही प्रतिवर्ष 3 लाख लोग इस
बीमारी से काल के गाल में समा जाते हैं।
24 मार्च 1882 को डॉ. राबर्ट कॉच ने पहली बार
टी.बी. रोग के जीवाणु को पहचाना था। उसके सौ साल बाद 1982 में इंटरनेशनल यूनियन अगेन्स्ट
ट्यूबरक्यूलोसिस एन्ड लंग डिजीजेस ने 24 मार्च को विश्व टी.बी. दिवस घोषित किया था।
रोग का कारण
टी.बी. की बीमारी का मुख्य कारण माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्यूलोसिस नामक जीवाणु (बैक्टीरिया) है। यह जीवाणु लगभग सभी लोगों में निष्क्रिय अवस्था में हफ्तों से महीनों तक जीवित रह सकता है। जीवित कोशिकाओं में यह जीवाणु 16 से 18 घंटे में विभाजित होता है। अगर
किसी मरीज की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, तो ऐसी स्थिति में ये जीवाणु शरीर के विभिन्न भागों में जाकर बीमारी उत्पन्न करते हैं। जब भी कोई मरीज फेफड़े की टी.बी. की बीमारी से पीडि़त होता है, तो खांसते या छींकते समय यह जीवाणु हवा में फैलने लगते हैं और सामने वाले व्यक्ति के शरीर में सांस द्वारा शरीर के अंदर
चले जाते हैं और वहां जाकर फेफड़े के अंदर बैठ जाते हैं। कभी-कभी ये जीवाणु उसी समय पर बीमारी पैदा कर देते हैं और अधिकतर समय फेफड़े में या शरीर के अन्य भागों में निष्क्रिय स्थिति में पड़े रहते हैं। जब कभी शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, तो यह उस
व्यक्ति में टी.बी.पैदा कर सकते हैं।
बीमारी के प्रकार
अधिकतर मरीजों में टी.बी. के जीवाणु फेफड़े को प्रभावित करते हैं। इस कारण फेफड़े की टी.बी. की बीमारी हो जाती है। 20 से 25 प्रतिशत लोगों में ये जीवाणु शरीर के किसी भी भाग को प्रभावित कर सकते हैं। खासकर आंत, हड्डी, मस्तिष्क और लिंफ ग्लैंड्स में बीमारी के लक्षण इस बात को निर्धारित करते हैं कि जीवाणु ने शरीर के किस भाग को मुख्य रूप से प्रभावित
किया है।
इन लोगों को है ज्यादा खतरा
किसी भी कारण से अगर शरीर की रोग प्रतिरोधकक्षमता कम हो जाती है, तो जीवाणु इस बीमारी को पैदा करने के लिए बहुत तीव्रता से विभाजित होते हैं और बीमारी पैदा कर देते हैं। खासकर डाइबिटीज से ग्रस्त लोग, एच.आई. वी. संक्रमण से ग्रस्त लोग, कैंसर की बीमारी, वृद्धावस्था, सांस की पुरानी बीमारी या गुर्दे की लम्बी बीमारी या लंबे समय तक स्टेरॉइड दवाओं का इस्तेमाल करने से टी.बी. होने का जोखिम बढ़ जाता है।
रोग का निदान व उपचार
अधिकतर मरीजों में डॉक्टर मरीज का परीक्षण करके और उनके लक्षण जानकर बीमारी का अंदाजा लगा लेते हैं, लेकिन बीमारी का पता करने के लिए मुख्य तौर पर फेफड़े का एक्स-रे, बलगम की जांच, पेट का अल्ट्रासाउंड और गले की गांठों की जांच की आवश्यकता पड़ती है। मरीज के रक्त में मान्टूक्स नामक जांच कराकर बीमारी का इलाज नहीं करना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस जांच से सिर्फ यहीं
पता चलता है कि पीडि़त व्यक्ति में टी.बी. के जीवाणु का संक्रमण है, न कि उसे टी.बी. की बीमारी है।
सामान्य तौर पर टी.बी. की बीमारी 6 से 9 महीने में सही दवाओं के इस्तेमाल से ठीक हो जाती है। चूंकि टी.बी. के जीवाणु बहुत ही धीरे-धीरे मरते हैं। इसलिए इस बीमारी का इलाज लंबे समय तक किया जाता है।
मरीज को यह सलाह दी जाती है कि दवाओं का
प्रयोग नियमित तौर पर करे। दवाओं को निर्धारित
अवधि से पहले छोड़ देने से दवाएं प्रभावहीन हो जाती हैं और जीवाणु इन दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा लेते हैं। दवाएं तब तक जारी रखें, जब तक डॉक्टर परीक्षण करके इन्हें बन्द करने की अनुमति न दें।
मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट टी.बी.
माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्यूलोसिस जीवाणु में जब दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता (रेजिस्टेंट) पैदा हो जाती है, तो उस पर प्रथम श्रेणी की दवाओं (फस्र्ट लाइन ड्रग्स)का प्रभाव नहीं पड़ता है, जो टी.बी. की बीमारी का एक भयानक रूप है। इसका इलाज करने के लिए डॉक्टर को दूसरे स्तर की दवाओं (सेकंड लाइन ड्रग्स) का प्रयोग करना पड़ता है, जो काफी हानिकारक होती हैं और लंबे समय तक लगभग 24 माह तक इनका सेवन करना होता है। इसके बाद भी इन मरीजों में मृत्युदर अधिक होती है। अगर इन दवाओं का इस्तेमाल भी अनियमित रूप से किया जाता है, तो टी.बी. का जीवाणु और अधिक शक्तिशाली हो जाता है और इन दवाओं के प्रति भी प्रतिरोधक क्षमता बना लेता है। ऐसी स्थिति में इस बीमारी के एक्स.डी.आर. (एक्सटेन्सिवली ड्रग रेजिस्टेंट) टी.बी.कहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 5 से 10 प्रतिशत मरीज इस टी.बी. से ग्रस्त हैं। कभी-कभी टी.बी. का जीवाणु टी.बी. की सभी दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बना लेते हैं, जिसे टोटल ड्रग रेजिस्टेंट टी.बी.कहते हैं, जिसका इलाज कठिन है।
क्या करें जब घर में हो टी.बी. का मरीज
इस भयंकर बीमारी से बचाव के लिए कुछ बातों की जानकारी आवश्यक है ताकि आप सही तरीकेसे मरीज का इलाज करवा सकें। केवल फेफड़े की टी.बी. से ही बीमारी का प्रसार दूसरे लोगों में होता है। जिस परिवार में इस तरह के मरीज होते हैं, उन्हें कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। अगर बीमारी संक्रमण की स्थिति में है, तो अपने डॉक्टर से बात करनी चाहिए कि क्या परिवार
के किसी और सदस्य को यह बीमारी लग सकती है।
अगर ऐसा है तो मरीज को कुछ समय के लिए बाकी लोगों से अलग रखना चाहिए।
टी.बी. की दवाओं के कुछ दुष्प्रभाव भी होते हैं
जैसे- पीलिया होना, नजर कमजोर होना, जोड़ों में दर्द होना, चलने में लडख़ड़ाना, कम सुनाई देना या उल्टी होना और भूख बन्द हो जाना आदि। ऐसी अवस्था में परिवार के सदस्यों को डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए।
डॉ. ए.के. सिंह सीनियर चेस्ट फिजीशियन