थमी रही महंगाई तो घटेंगी ब्याज दरें
ब्याज दरें काफी कुछ महंगाई पर निर्भर करेंगी। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) मोटे तौर पर खाद्य व गैर खाद्य आइटमों के आधार पर निर्धारित होता है। फिलहाल, दोनों मोर्चो पर महंगाई दर आठ फीसद के आसपास है। खाद्य महंगाई दर नवंबर के 12.5 फीसद से घटकर काफी नीचे आ गई है।
ब्याज दरें काफी कुछ महंगाई पर निर्भर करेंगी। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) मोटे तौर पर खाद्य व गैर खाद्य आइटमों के आधार पर निर्धारित होता है। फिलहाल, दोनों मोर्चो पर महंगाई दर आठ फीसद के आसपास है। खाद्य महंगाई दर नवंबर के 12.5 फीसद से घटकर काफी नीचे आ गई है।
नया वित्तीय वर्ष प्रारंभ हो चुका है। रिजर्व बैंक अपना पहला द्विमासिक नीतिगत वक्तव्य जारी कर चुका है। जैसी कि उम्मीद थी आरबीआइ ने ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं किया है। केंद्रीय बैंक ने फिर कहा है कि अगर जनवरी, 2015 तक महंगाई आठ फीसद के भीतर रहती है तो ब्याज दरों में और बढ़ोतरी होने की संभावना नहीं है। इस वक्तव्य को दो महीने पहले की नीतिगत समीक्षा के साथ देखा जाए तो आरबीआइ ने संकेत दे दिया है कि ब्याज दर में बढ़ोतरी का चक्र (सितंबर, 2013 से जनवरी, 2014) पूर्ण हो चुका है। यदि महंगाई दर संभावित स्तर से नीचे रहती है तो आने वाले महीनों में मौद्रिक नीति आसान हो सकती है।
देखा जाए तो प्रमुख जिंसों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व सब्जियों के दामों में बढ़ोतरी के अलावा बेमौसम बारिश के कारण पिछले साल खाद्य महंगाई बढ़ी थी, जबकि पिछले तीन महीनों में सब्जियों के दाम गिरने व चालू फसलों के लिए एमएसपी में बहुत कम बढ़ोतरी होने से खाद्य महंगाई में कमी आई है। चालू वर्ष के बाकी महीनों में महंगाई दर आरबीआइ के आठ फीसद अनुमान से कम रहने के आसार हैं। ऐसे में केंद्रीय बैंक ने सचेत किया है कि महंगाई के पिछले रुख को देखना होगा। खाद्य महंगाई में अगले साल का रुख एमएसपी में बढ़ोतरी के स्तर व मानसून की हालत से तय होगा। अगले तीन महीनों में इन बातों का बहुत कुछ अंदाजा हो जाएगा।
गैर-खाद्य महंगाई (बेहतर कहा जाए तो गैर-खाद्य व गैर-ईधन महंगाई, जिसे असल महंगाई या कोर इंफ्लेशन कहा जाता है) पिछले कई महीनों से आठ फीसद पर टिकी हुई है। इसके प्रमाण हैं कि असल महंगाई मौद्रिक हलचल से प्रभावित होती है। यानी यदि रुपये की कीमत गिरती है तो असल महंगाई दर बढ़ती है। रुपये की मजबूती से इसमें कमी आती है। हाल के दिनों में जिस तरह रुपया मजबूत हुआ है, उससे आने वाले महीनों में असल महंगाई दर में कमी की उम्मीद बंधती है। एक चौथाई असल महंगाई मकानों के किराये से बनती है, जिसका निर्धारण मकान किराया भत्ता (एचआरए) में बदलाव से होता है। जबकि एचआरए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को प्रभावित करता है। यदि महंगाई दर घटती है तो अगले साल एचआरए कम बढ़ेगा, जिससे कोर इंफ्लेशन में भी कमी आएगी।
यदि मानसून सामान्य रहा और एमएसपी में बड़ी बढ़ोतरी नहीं हुई तो आरबीआइ न केवल इस साल, बल्कि जनवरी, 2016 तक महंगाई को सीमित रखने में कामयाब रहेगा। यह आरबीआइ के लिए अहम होगा, क्योंकि इससे महंगाई को काबू करने की उसकी काबिलियत साबित हो जाएगी। पिछले छह सालों में महंगाई दर दो अंकों के आसपास रही है। इससे आर्थिक अस्थिरता को बढ़ावा मिला है, जबकि क्रय शक्ति व बचत दर तथा प्रतिस्पद्र्धा शक्ति घटी है। पिछले साल जिस तरह चालू खाते का घाटा बढ़ा व लगभग मौद्रिक संकट के हालात पैदा हुए थे, उसका भी यही कारण था।
पूर्व में महंगाई थामने के लिए आरबीआइ व बांड मार्केट का फोकस थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) पर ज्यादा रहा है। वर्ष 2010 व 2012 के दौरान जहां डब्ल्यूपीआइ आधारित महंगाई औसतन आठ फीसद पर रही, वहीं बांड यील्ड का प्रतिशत 8.3-8.8 फीसद के दरम्यान रहा। वर्ष 2012 के आखिरी व 2013 के शुरुआती दिनों में डब्ल्यूपीआइ आधारित महंगाई में भारी कमी आई और यह पांच फीसद के आसपास रही। इस अवधि में बांड यील्ड भी गिरकर 7.2 फीसद पर आ गई। परंतु अब डब्ल्यूपीआइ के बजाय सीपीआइ आधारित महंगाई पर ज्यादा फोकस है। लिहाजा बाजार ने डब्ल्यूपीआइ आधारित महंगाई में तीव्र गिरावट (जो फरवरी, 2014 में 4.7 फीसद पर थी) को नजरअंदाज कर दिया है। आज बांड यील्ड 9 फीसद, जबकि सीपीआइ 8.1 फीसद पर है। सीपीआइ में कमी से बांड यील्ड भी घटेगी। अगर आरबीआइ महंगाई को छह फीसद पर लाने में कामयाब रहा तो अगले 12 महीनों में बांड यील्ड भी घटेगी। चूंकि बांड कीमतों का यील्ड के साथ उलटा रिश्ता है, इसलिए आने वाले समय में बांड कीमतें बढ़ेंगी व दीर्घकालिक बांडों से काफी कमाई हो सकती है।
पिछले साल मुद्रा एवं बांड मार्केट में उथल-पुथल की प्रमुख वजह अमेरिकी फेडरल रिजर्व की ओर से वित्तीय मदद में कटौती (टैपरिंग) की आशंका थी। इससे उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों की मुद्राओं में तेज गिरावट आ गई थी, जबकि ब्याज दरें व बांड यील्ड बढ़ गई थी। भारतीय रुपया भी बुरी तरह प्रभावित हुआ था। हालांकि हमारे बांड बाजार पर उतना असर नहीं पड़ा था। वैसे रुपये में तीव्र गिरावट की मुख्य वजह 2012 के अंत में चालू खाते के घाटे (सीएडी) की खराब स्थिति (जीडीपी के छह फीसद से ज्यादा सीएडी) थी। लेकिन अब सीएडी दो फीसद के भीतर नियंत्रित कर लिया गया है। आरबीआइ ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार में भी बढ़ोतरी कर ली है। इससे अब वह मौद्रिक हलचल से बेहतर ढंग से निपटने की स्थिति में है। 2014 में रुपये की कीमत सुधरने के पीछे यही दो वजहें हैं, जबकि दिसंबर, 2013 में टैपरिंग के बाद ज्यादातर उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राएं कमजोर हुई हैं।
इससे पहले अमेरिका ने 2004 में सख्त मौद्रिक नीति अपनाई थी, जब ब्याज दरों बहुत ज्यादा नीचे थीं। उस समय भी फेड रिजर्व ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुधार के अनुमान के आधार पर कड़ाई बरती थी। उसके बाद अगले तीन सालों (2005-07) तक न केवल रुपये में मजबूती रही, बल्कि चालू खाते में सरप्लस (घाटे के बजाय) के साथ भारतीय बांड बाजार में भी प्राय: स्थिरता के हालात रहे थे।
बांड मार्केट में निवेश के अवसर:
घटती महंगाई से अगली 4-6 तिमाहियों में आरबीआइ को ब्याज दरों में कमी का अवसर मिलेगा। इससे बांड यील्ड में गिरावट आएगी व बांड की कीमतें बढ़ेंगी। लिहाजा निवेशकों को 12-18 महीने या इससे लंबी अवधि के इनकम व डायनामिक बांडों में निवेश करने पर विचार करना चाहिए। अगले 3-6 महीनों की सोचें तो चुनाव, नए बजट व मानसून की शुरुआत के कारण इस दौरान बाजार में ज्यादा उतार-चढ़ाव की स्थिति रह सकती है। इसलिए इस अवधि में अल्पकालिक फंडों में निवेश करना ठीक रहेगा, क्योंकि ये फंड दीर्घकालिक फंडों के मुकाबले हलचल का कम शिकार होते हैं।
आर शिवकुमार
हेड फिक्स्ड इनकम
एक्सिस एमएफ
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