हमारे पास किस्से हैं, बातें हैं, यादें हैं: सुभाष घई
'हिंदी सिने जगत के पास किस्से हैं। कहने को नई बातें हैं। बेहद समृद्ध इतिहास है। लिहाजा हमें वर्ल्ड सिनेमा या हॉलीवुड से डरने की जरूरत नहीं हैं। हम कंटेंट के मामले में बाकी दुनिया के सिनेमा से कतई कमतर नहीं।' ये बातें दर्शकों ढाई दशक तक रोचक, प्रेरक, रोमांचक
नई दिल्ली, [अमित कर्ण]। 'हिंदी सिने जगत के पास किस्से हैं। कहने को नई बातें हैं। बेहद समृद्ध इतिहास है। लिहाजा हमें वर्ल्ड सिनेमा या हॉलीवुड से डरने की जरूरत नहीं हैं। हम कंटेंट के मामले में बाकी दुनिया के सिनेमा से कतई कमतर नहीं।' ये बातें दर्शकों ढाई दशक तक रोचक, प्रेरक, रोमांचक और मनोरंजक फिल्में देने वाले फिल्मकार सुभाष घई ने छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल के चौथे दिन कहीं।
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उन्होंने फेस्टिवल के आयोजकों का आभार प्रकट करते हुए कहा, 'हिंदी पट्टी की ढेर सारी प्रतिभाएं हिंदी फिल्मों में अपना मजबूत वजूद स्थापित कर चुकी हैं। देसी मिट्टी की सौंधी सुगंध से लैस कहानियां दर्शकों को मिल रही हैं। वे न केवल भारत, बल्कि वैश्विक स्तर पर सराही व स्वीकारी जा रही हैं। उनकी मिसाल क्वीन, विकी डोनर, दम लगा के हईसा, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स और पीकू हैं। वे खालिस हमारी देसी सोच व अप्रोच की फिल्में हैं। उनका डंका पूरी दुनिया में बजा। उक्त में सभी के रायटर हिंदी हार्टलैंड के हैं। ऐसे में दैनिक जागरण के फिल्म फेस्टिवल की पहल का मैं सम्मान करता हूं। मैं उनके जरिए हिंदी भाषी प्रदेश के प्रतिभावान लेखकों को संदेश देना चाहूंगा कि अपनी मौलिक कहानियों में पूरा यकीन रखें। उन्हें जानदार बनाएं, जो सीधा रूह को छू जाए। बाकी आप को किसी किस्म के बैसाखियों यानी मार्केटिंग, प्रोमोशन की दरकार नहीं होगी।'
हमारे पास ऐसे दो उदाहरण हम आप के हैं कौन व दम लगा के हईसा का है। हम आप के हैं कौन पांच करोड़ में बनी थी। उसे राजश्री वालों ने पूरे देश में महज 10 प्रिंट के साथ रिलीज की। मैंने वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि फिल्म चूंकि अनकनवेंशनल है तो बड़े स्तर पर उसे रिलीज करना रिकवरी के लिहाज से जोखिम भरा काम है। फिल्म को दर्शकों का प्यार मिलने पर प्रिंट की किस्मत तय की जाएगी। यकीन मानें साहब रिलीज के अगले दो हफ्तों में पहले 100 प्रिंट फिर 250 प्रिंट की डिमांड आ गई। वह फिल्म फिर अगले दो साल तक थिएटरों में रही। दम लगा के हईसा के रिलीज से पहले खास प्रोमोशन भी नहीं हुए। रिलीज के बाद फिल्म को ऐसी वर्ड टू माउथ पब्लिसिटी मिली कि वह एक महीने से ऊपर सिनेमाघरों में लगी रही। मतलब यह कि हॉलीवुड की फिल्में भले दुनिया भर में रिलीज हो अपनी मनी पॉवर के चलते, लेकिन हमारी फिल्म इंडस्ट्री को वे हिला नहीं सकते।
मैं एक और उदाहरण केवि रिते जेइश और बेयार का देना चाहूंगा। दोनों सुपरहिट गुजराती फिल्में हैं। कई हफ्तों से गुजरात व गुजराती बहुल एनआरआई देशों में वे चल रही हैं। एक ऐसे दौर में जब गुजराती फिल्मोद्योग की हालत खस्ता मानी जा रही थी। वहां हिंदी व हॉलीवुड की डब फिल्में ही चलन में थीं। किन्हीं को उम्मीद नहीं थी कि वे कोई गुजराती फिल्म कई हफ्तों तक सिनेमाघरों में रह सकती है, लेकिन जब केवि रिते जेइश और बेयार जैसी उम्दा फिल्में आईं तो गुजरातियों का मोहभंग तत्कालीन समय पर लगी हुई हॉलीवुड की फिल्मों से अपने आप हो गया।
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सुभाष घई ने सेशन के दौरान ढेर सारे मजेदार वाकये सुनाए। उनसे जब पूछा गया कि एफटीआईआई में एडिटिंग, डायरेक्शन व एक्टिंग करने वाले कल्ट व सफलतम डायरेक्टर बने, पर जिन्होंने खालिस डायरेक्शन का कोर्स किया, वे उतने सफलतम नाम नहीं। मिसाल के तौर पर राजकुमार हिरानी व डेविड धवन एडिटिंग के स्टूडेंट थे, जबकि सुभाष घई ने खुद एक्टिंग की कोर्स की थी, मगर उक्त सभी नाम बड़े व स्थापित रहे? इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'मेरे ख्याल से डायरेक्शन के लिए तकनीकी दक्षता से अधिक निर्देशन का सेंस होना बहुत जरूरी है। राजू हिरानी शुरू से डायरेक्शन करना चाहते थे। उन्होंने एडीटिंग मजबूरी में की। मेरी कालीचरण की कहानी कई निर्माताओं ने रिजेक्ट की थी, पर जब उसे निर्देशित करने का मौका मिला और वह रिलीज बाद सफल रही तो फिर डायरेक्शन की गाड़ी चल पड़ी।'
सुभाष घई ने मौजूदा दौर की फिल्मों की अवधि छोटी होने पर भी आश्चर्य जताया। उन्होंने कहा, 'ये सब बेकार के बहाने हैं। 'लगान', 'भाग मिल्खा भाग', 'जोधा अकबर' सब लंबी फिल्में थीं, लेकिन वे हिंदी सिने इतिहास की सफलतम फिल्में हैं। उनकी डिटेलिंग कहीं बोरियत नहीं लाती। आप की फिल्म अच्छी है तो वह लंबी होने पर भी लोगों को पसंद पड़ेगी।'