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Loksabha Election 2019 : पिता की विरासत और पीएम मोदी की छाया आजमगढ़ में अखिलेश के सामने चुनौती

अखिलेश के सामने एक तरफ पिता मुलायम सिंह यादव की विरासत बचाने की चुनौती है तो दूसरी तरफ पूर्वांचल में गठबंधन की बाकी सीटों के लिए मजबूत समीकरण बनाने का दायित्व।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Mon, 25 Mar 2019 11:40 AM (IST)Updated: Mon, 25 Mar 2019 02:57 PM (IST)
Loksabha Election 2019 : पिता की विरासत और पीएम मोदी की छाया आजमगढ़ में अखिलेश के सामने चुनौती

लखनऊ [आनन्द राय]। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की आजमगढ़ से सपा-बसपा-रालोद गठबंधन प्रत्याशी घोषित होने के बाद से इस जिले की प्रासंगिकता एक बार फिर बढ़ गई है। अखिलेश के सामने एक तरफ पिता मुलायम सिंह यादव की विरासत बचाने की चुनौती है तो दूसरी तरफ पूर्वांचल में गठबंधन की बाकी सीटों के लिए मजबूत समीकरण बनाने का दायित्व। उधर, पड़ोसी सीट वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फिर उम्मीदवार होने से उनके पास-पड़ोस में भी उनकी मजबूत परछाई उभरनी तय है।

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समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव 16वीं लोकसभा में आजमगढ़ से चुनाव जीते थे। हालांकि तब उन्हें कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। मुलायम को 19 फीसद मत मिले। उनके मुकाबले मे रही भाजपा के रमाकांत यादव को 16 फीसद मत मिले। कभी मुलायम के ही शागिर्द रहे रमाकांत ने गुरू को कड़ी टक्कर दी थी। बसपा के शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली ने भी 15 फीसद मत पाकर लड़ाई को रोमांचक बना दिया था। इस बार समीकरण बदले हैं। सपा-बसपा और रालोद मिलकर चुनाव मैदान में हैं। गठबंधन इसका लाभ उठाने की कोशिश में है जबकि भाजपा यहां बसपा के परंपरागत मतदाताओं के बीच बिखराव के लिए जुगत लगा रही है।

पिछले चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने आजमगढ़ और मैनपुरी से चुनाव जीता लेकिन, उन्होंने आजमगढ़ सीट अपने पास रखी। पर कम मतों की जीत उन्हें चुभती रही। एक वर्ष पहले उन्होंने आजमगढ़ से चुनाव न लडऩे का एलान किया तो यह सवाल उठना स्वाभाविक था कि आखिर आजमगढ़ को प्राथमिकता देने वाले मुलायम इसे क्यों छोड़ रहे हैं। इस सवाल को तब और बल मिला जब तमाम अटकलों को धता बताते हुए भाजपा ने मोदी की उम्मीदवारी वाराणसी से ही तय कर दी। इससे मोदी के टिकाऊपन के साथ ही उनका उत्तर प्रदेश के प्रति प्रेम भी जगजाहिर हुआ। यही वजह रही कि मोदी की राह रोकने में जुटे विपक्ष को भी पूर्वांचल में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने की चुनौती खड़ी हो गई।

अखिलेश यादव की उम्मीदवारी से न केवल सवालों पर विराम लगा बल्कि पूर्वांचल में फिर एक बड़े समीकरण की बुनियाद पड़ गई। जाहिर है कि अब मोदी के बाद पूर्वांचल में अखिलेश की ही बड़ी छाया दिखेगी। अंतिम दो चरणों में पूर्वी उत्तर प्रदेश के चुनाव होने हैं। छठे चरण में आजमगढ़ और सातवें में वाराणसी में मतदान है। अंत तक सत्तापक्ष मोदी और विपक्ष अखिलेश के नारों की धूम मचाएगा। सपा-बसपा-रालोद तीनों का आजमगढ़ से गहरा नाता है। 1989 में पहली बार रामकृष्ण यादव यहां बसपा के टिकट पर चुनकर दिल्ली पहुंचे थे और फिर कई बार बसपा को प्रतिनिधित्व का मौका मिला।

आजमगढ़ सपा की बड़ी ताकत

समाजवादी पार्टी की स्थापना में सबसे बड़ी ताकत आजमगढ़ की रही है। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह तो आजमगढ़ को अपना दूसरा घर मानते थे। आजमगढ़ संसदीय क्षेत्र के विधानसभा गोपालपुर, आजमगढ़ और मेहनगर में सपा जबकि सगड़ी और मुबारकपुर में बसपा का कब्जा है।

आजमगढ़ में कभी टिके नहीं बड़े नेता

आजमगढ़ ने बड़े नेताओं को जमीन और शोहरत दी लेकिन, कुर्सी मिलने के बाद यहां से पलटने में लोगों ने देर न लगाई। आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी का उदय हुआ तो रामनरेश यादव यहां के सांसद चुने गये लेकिन, मुख्यमंत्री की खींचतान में उत्तर प्रदेश की हुकूमत का ताज उनके माथे बंध गया। लोकसभा सदस्यता से रामनरेश के त्यागपत्र के बाद आजमगढ़ में उप चुनाव हुआ। कांग्रेस ने मोहसिना किदवई को उप चुनाव के मैदान में उतारा।

मोहसिना यहां से राम वचन यादव और चंद्रजीत यादव जैसे दिग्गज को हराकर चुनाव जीत गईं। वहीं से कांग्रेस की लहर भी शुरू हो गई लेकिन, 1980 के चुनाव में मोहसिना ने आजमगढ़ का मैदान छोड़ दिया। आजमगढ़ में बाहुबली रमाकांत यादव सांसद हुए तो उनके खिलाफ अकबर अहमद डंपी ने आकर चुनौती दी। आजमगढ़ की जनता ने डंपी को चुनाव जिताया। डंपी चुनाव जीतने के बाद एक-दो चुनाव में जमे लेकिन, पराजय झेलने के बाद राह बदल ली तो फिर नहीं लौटे।


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