पंजाब के शिक्षा महानिदेशक के कार्यालय ने अध्यापिकाओं को स्कूल में जींस व टॉप पहन कर न आने का निर्देश जारी कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया। इस निर्देश के बारे में पता चलते ही सभी भौहें चढऩा स्वाभाविक था। आज के दौर में जींस व टॉप को एक सामान्य पहरावे के तौर पर माना जाता है या नहीं? भड़काऊ पहरावे की परिभाषा क्या होगी?...यह सवाल पेचीदा हैैं। यह ठीक है कि स्कूलों व अन्य शिक्षण संस्थानों में इस बात का खास ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी इस तरह के वस्त्र न पहने जो आपत्तिजनक हों लेकिन इस तरह ड्रेस कोड जारी करना तो डंडे से हांकने जैसी बात है। हम जब भारत व खासकर पंजाब में अपनी समृद्ध संस्कृति व संस्कारों की बात करते हैैं तो यह विश्वास भी होना चाहिए कि शिक्षा के मंदिरों में सादगी होगी। इसके लिए शिक्षकों का प्रशिक्षण ही ऐसा होना चाहिए। उन्हें मानसिक तौर पर ही इस तरह तैयार किया जाना चाहिए जिससे वे खुद अपने आचरण व पहरावे इत्यादि पर ध्यान रखें और एक आदर्श प्रस्तुत करें । इस निर्देश पर ज्यादा हाय तौबा न मचे, विरोध न हो, इसे भांपते हुए अगले ही दिन शिक्षा मंत्री ने हालांकि विभाग के उपनिदेशक व सहायक निदेशक को निलंबित कर दिया है लेकिन इस सारे मामले ने शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विभाग के नीति-नियंताओं की मानसिकता को प्रकट कर दिया है। ड्रेस कोड केवल महिला अध्यापकों के लिए ही क्यों? यह भी तो हो सकता है कि पुुरुष अध्यापकों का आचरण भी आपत्तिजनक हो। उसे कैसे रोका जाए? शिक्षा मंत्री का यह कहना वाजिब है कि ऐसे फैसलों से समाज में सबसे अधिक सम्मान का दर्जा रखने वाले राष्ट्र निर्माता अध्यापकों और विशेषकर महिलाओं के मान-सम्मान को बड़ी ठेस पहुंच सकती है। शिक्षा मंत्री का यह कथन और भी सवाल खड़े करता है कि यह आदेश निलंबित किए इन दोनों अधिकारियों द्वारा अपने स्तर पर ही जारी किए गए। आखिर यह कैसे हो सकता है कि दो अधिकारियों ने किसी भी उच्चाधिकारी से सहमति या स्वीकृति नहीं ली। इस मामले की जांच होनी चाहिए। शिक्षा विभाग को चाहिए कि वह इस तरह के निर्देश जारी करने वाले अफसरों की भी काउंसिलिंग करे। शिक्षकों को भी चाहिए कि वे अपने पहरावे को लेकर इतना ध्यान जरूर रखें कि उससे कोई विपरीत प्रभाव विद्यार्थियों के जहन पर न पड़े। नैतिक मूल्य मजबूत होंगे तो ऐसे निर्देशों की नौबत ही नहीं आनी चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : पंजाब ]