कानूनी नुक्ते का फायदा उठाकर आदिवासी जमीन गैरआदिवासियों को हस्तांतरित किए जाने के सिलसिले पर रोक लगाने की ओर बढ़ रही सरकार मुकाम तक पहुंच सकी तो यह एक ऐतिहासिक कदम होगा। 1969 में लागू किए गए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम की धारा 71 ए के प्रावधान का दुरुपयोग कर अबतक 21,955 आदिवासी परिवारों की 21,173 एकड़ भूमि गैर आदिवासियों के नाम हस्तांतरित की जा चुकी है। वर्तमान में 4,727 आदिवासी परिवारों की 3,879 एकड़ भूमि से संबंधित मामले विभिन्न एसएआर अदालतों में लंबित होने से भी समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी गंभीर है। राजधानी क्षेत्र वाले रांची जिले में ऐसी जमीन के हस्तांतरण से संबंधित सर्वाधिक 3,541 मामले अकेले रांची की अदालत में लंबित हैं। राजधानी बनने के बाद से रांची में बसने की होड़ मची हुई है। पहले से रांची में रह रहे लोग या अन्य जिलों से आकर यहां बसने की इच्छा रखने वाले लोग जमीन खरीदने की गति तेज कर चुके हैं। आदिवासी जमीन सस्ते में पट जाती है, क्योंकि सीएनटी के दायरे से बाहर वाले गैर आदिवासियों की जमीन की जबर्दस्त किल्लत है। ऐसे में आदिवासी परिवार से यह लिखवाकर कि दशकों पहले आवश्यकतावश लिए गए ऋण के एवज में अपना भूखंड दूसरे पक्ष को दे रखा है, एसएआर कोर्ट के सहारे जमीन का हस्तांतरण जारी है।

दूसरी ओर विक्रेता आदिवासी परिवार भूखंड के बदले मिली रकम को खाने-पीने या फिर किन्हीं अन्य पारिवारिक जवाबदेहियों के निपटारे में उड़ा देता है। कई बार तो भू मालिक आदिवासी परिवार को इसी कारण पलायन का रास्ता अपनाना पड़ता है। आदिवासियों की जातीय परंपरा को समृद्ध करने की गरज से ही छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम लाया गया था। झारखंड को राज्य बनाए जाने के बाद से बसाहट के दृष्टिकोण से शहरी क्षेत्रों में और उद्योग-धंधे एवं विकास कार्यों के लिहाज से ग्रामीण क्षेत्रों में भी जमीन की आवश्यकता बढ़ गई है। सर्वाधिक 26 फीसद जनजातीय आबादी वाले इस राज्य में अधिकांश आदिवासियों के जीवन का मूल आधार उनकी पैतृक जमीन ही है। वह भी यदि हाथ से निकल जाए तो निश्चय ही संबंधित परिवार संकटग्रस्त हो जाता है। इस बात की चर्चा राज्य बनने के बाद से ही होती रही है, किंतु पूर्व की नौ सरकारें इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा सकीं। वर्तमान सरकार ने कागजी कार्रवाई शुरू की है, जिसे अंजाम तक पहुंचाने की जवाबदेही उसी की है। आदिवासियों की जमीन अवैध तरीके से खरीदने वालों में आदिवासी अधिकारी, आदिवासी ठेकेदार और आदिवासी नेता भी शामिल हैं। इस कारण भी पूर्व की सरकारें इस मामले में हाथ डालने से बचती रहीं।

[स्थानीय संपादकीय: झारखंड]