उत्तराखंड की वादियों में सैलानियों को लुभाने के लिए सबकुछ है। जरूरत है सिस्टम को दुरुस्त करने की। दरअसल, इसके लिए नीति से भी ज्यादा जरूरी है नीयत की।
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कुदरत ने उत्तराखंड को तमाम नेमतें बख्शीं। हरे-भरे बुग्याल, बर्फ से लकदक चोटियां और वन्य जीवन से भरपूर जंगल। बावजूद इसके पर्यटन को आर्थिकी की रीढ़ मानने वाले प्रदेश में शायद ही कभी इस दिशा में गंभीर प्रयास किए गए हों। ऐसा नहीं है कि योजनाओं की कमी हो। योजनाएं बनीं और खूब बनीं। कागजों में कई पयर्टन सर्किट विकसित किए गए। पर्यटन ग्राम के लिए पायलेट प्रोजेक्ट भी चले, लेकिन कोई नहीं जानता कि ये योजनाएं किस स्तर तक परवान चढ़ीं। देश-विदेश के लिए सैलानियों के लिए उत्तराखंड में काफी कुछ है, लेकिन विडंबना ही है कि ब्रिटिश शासन के बाद पर्यटन के नक्शे में नया कुछ नहीं जुड़ सका। आज भी प्रदेश की पहचान मसूरी, नैनीताल, देहरादून और कौसानी जैसे स्थलों से है। जबकि सरकारें कई मर्तबा पौड़ी, लैंसडौन, चोपता, हर्षिल, अल्मोड़ा और रानीखेत जैसे तमाम स्थलों के विकास की बातें करती रही हैं। पौड़ी-खिर्सू पयर्टन सर्किट को लेकर तो लंबे समय तक कवायद चलती रही। दरअसल, देखा जाए तो उत्तराखंड की वादियां खूबसूरती के मामले में यूरोप से किसी मायने में कम नहीं हैं, बस हम पीछे हैं तो सिस्टम में। यहां तक कि हम अपने पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश से भी सीखने को तैयार नहीं हैं। पर्यटकों को सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में हिमाचल उत्तराखंड से कहीं आगे है। यही वजह है कि वहां हर साल देशी-विदेशी सैलानियों की तादाद उत्तराखंड की तुलना में कहीं ज्यादा रहती है। हिमाचल ने फलोद्यान और पर्यटन को आर्थिकी का जरिया बनाया। ईमानदार प्रयासों का नतीजा सबके सामने है। देखा जाए तो उत्तराखंड तीर्थाटन के मामले में हिमाचल से बेहतर है। हमारे पास बदरी-केदार और गंगोत्री-यमुनोत्री जैसे विश्व प्रसिद्ध धाम हैं। बावजूद इसके 16 साल में कई सरकारें आई और गईं, लेकिन सुविधाओं को विकसित करने के मामले में दो दिन चले अढाई कोस वाली स्थिति रही। न तो हम सड़कों का विकास कर पाए और न ही पर्यटकों ठहरने व खाने के लिए बेहतर प्रबंध। यही वजह है कि चोपता हो या हरकी दून जैसे ट्रैक पर्यटकों की आंखों से आज भी ओझल हैं। यह अच्छा है कि पर्यटन विभाग दस स्थानों का चयन कर यहां यूरोप की तर्ज पर फनिक्युलर (केबल कार) चलाने की दिशा में काम कर रहा है। योजना परवान चढ़ी तो अपेक्षित नतीजे भी मिलेंगे। मगर यह तभी होगा जब अतीत से सबक लेकर काम किया जाए। दरअसल, योजनाओं को धरातल पर उतारने के लिए नीति की जरूरत तो है, लेकिन उससे ज्यादा आवश्यकता है नीयत की।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]