उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में सड़कों को अतिक्रमण मुक्त करने की हालिया कसरत को राज्य सरकार की इच्छाशक्ति का पैमाना माना जाए तो गलत नहीं होगा। अपनी ही पार्टी के नेताओं और व्यापारियों के बड़े समूह के दबाव के बावजूद सरकार ने एक रोज पहले जिस अंदाज में अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई की, उसकी मुक्त कंठ से सराहना की जानी चाहिए। ऐसा नहीं कि अतिक्रमण के खिलाफ सरकारी अमला पहली मर्तबा सड़कों पर उतरा, लेकिन मुकाम तक कभी नहीं पहुंच पाया।

कमजोर इच्छाशक्ति और दबाव की राजनीति के चलते इस प्रकार के अभियान औपचारिकता बन कर रह गए। सरकार की सराहना इसलिए भी की जानी चाहिए कि अतिक्रमण को हटाने के लिए इस बार रणनीति कुछ हटकर बनी थी। विभागों के बीच तालमेल की कमी की शिकायत का मौका ही नहीं बनने दिया। पीछे मुड़कर देखें तो ज्यादातर अवसरों पर इसी कमी के चलते अतिक्रमण हटाने गई टीमें बैरंग लौटती रहीं या फिर जाने का इरादा ही टालती दिखीं। लेकिन, इस बार अंदाज जुदा था और इसका नतीजा सभी के सामने है। शहर के जिन इलाकों में जिम्मेदार एजेंसियां अतिक्रमण हटाने का साहस नहीं जुटा पाती थीं, वहां भी प्रतिरोध के बावजूद धड़ल्ले से अवैध निर्माण ढहाए गए।

अच्छी बात यह कि अपनों पर रहम और परायों पर करम जैसे आरोपों से सरकार बचती दिखी। यह किसी से छिपा नहीं है कि अतिक्रमण शहरों के लिए नासूर बनता जा रहा है। इसकी वजह से न केवल शहरों का स्वरूप बिगड़ रहा है, बल्कि यातायात बाधित होने की समस्या लगातार बढ़ रही है। जनता इससे कितनी पीड़ित है, यह इससे साबित होता है कि राजधानी में एक रोज पहले साढ़े छह किलोमीटर व्यस्ततम मार्ग अवरुद्ध होने के चलते शहरवासी चक्करघिनी बने, लेकिन किसी ने उफ तक नहीं की। इसके उलट जब उन्हें पता चला कि यह सब अतिक्रमण हटाने के लिए किया जा रहा है तो उन्होंने सरकार के अभियान की तारीफ की। निसंदेह इस तरह के अभियान राज्य के दूसरों शहरों में भी चलाने की जरूरत है।

हरिद्वार, हल्द्वानी, रुड़की, श्रीनगर, कोटद्वार, ऋषिकेश, ऊधमसिंहनगर समेत राज्य के तमाम शहरों के लोग अतिक्रमण की समस्या से जूझ रहे हैं। दून में सरकार सख्त इरादे के साथ अतिक्रमण पर जोरदार प्रहार की शुरुआत कर चुकी है। इससे यह भी साबित हो गया है कि सरकार ठान ले कि सड़कों और बाजारों को अतिक्रमण मुक्त करना है, तो कोई ताकत उसे नहीं रोक सकती। कुछ इसी जज्बे के साथ दूसरे शहरों को भी अतिक्रमण से निजात दिलाने की पहल की उम्मीद की जानी चाहिए।

[उत्तराखंड संपादकीय]