कहीं पर भी सामान्य से ज्यादा बारिश हो जाए तो लोगों को समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है, लेकिन ये समस्याएं तब गंभीर संकट का रूप ले लेती हैैं जब नियोजित विकास की अनदेखी के कारण बरसाती पानी की निकासी के उपयुक्त उपाय न किए गए हों। मुंबई में एक बार फिर बारिश का कहर देखने को मिल रहा है तो इस पर हैरत नहीं। मंगलवार को कहीं अधिक बारिश के कारण समुद्र तट पर बसी मुंबई जिस तरह पानी-पानी हुई और सड़क, रेल एवं वायु यातायात ठप होने से लाखों लोग परेशान हुए उससे फिर से यह स्पष्ट हो रहा है कि हमारे प्रमुख शहरों का ढांचा किस तरह चरमराता जा रहा है। मुंबई की दयनीय दशा 2005 की याद दिला रही है जब इसी तरह भारी बारिश के कारण सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया था। यह गनीमत है कि इस बार 2005 की तरह से मुंबई को जनहानि का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन यह ठीक नहीं कि देश की वित्तीय राजधानी कहा जाने वाला शहर बेतरतीब विकास का नमूना दिखे। 2005 की तबाही के बाद शहरीकरण के ढांचे के साथ सब कुछ दुरुस्त करने के साथ ही मुंबई को शंघाई बनाने तक के वायदे किए गए थे, लेकिन ताजा हालात बता रहे हैैं कि बीते 12 सालों मे आपदा तंत्र को सक्षम बनाने और सतर्कता के स्तर को बढ़ाने के अलावा और कुछ खास नहीं किया जा सका। मुंबई में न केवल पहले की तरह झुग्गी बस्तियां कायम हैैं, बल्कि वे बढ़ती भी दिख रही हैैं। इसी तरह अतिक्रमण और बेतरतीब विकास के जनक भू माफिया भी पहले की तरह सक्रिय हैैं।
मुंबई में जल निकासी तंत्र की किस तरह अनदेखी हुई है, इसका प्रमाण यह है कि शहर के बीच से बहने वाली मीठी नदी नाला बनकर रह गई है। ऐसी ही कुछ और नदियां कचरे और अतिक्रमण के कारण करीब-करीब खत्म होने की कगार पर हैैं। आखिर जब ये नदियां नष्ट की जा रही थीं तब मुंबई के नीति-नियंता क्या कर रहे थे? नि:संदेह बात केवल मुंबई की ही नहीं, अन्य महानगरों और शहरों की भी है। यह देश को जानबूझकर संकट की ओर ले जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कि जब छोटे-बड़े शहर आबादी के बढ़ते बोझ से दो-चार हैैं तब वे अनियोजित विकास से भी जूझ रहे हैैं। सभी जान रहे हैैं कि जल्द ही देश की कुल आबादी का करीब आधा हिस्सा शहरों में गुजर-बसर कर रहा होगा, लेकिन इससे संबंधित चुनौतियों का सामना करने में नगर निकायों से लेकर राज्य सरकारें तक उदासीन दिखती हैैं। इसी कारण स्मार्ट सिटी बनाने के इस दौर में सामान्य बारिश होते ही हमारे शहर हर तरह की अव्यवस्था से घिर जाते हैैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हमारे नीति-नियंताओं ने शहरों को उसी तरह उनके हाल पर छोड़ दिया है जैसे ग्रामीण इलाकों को छोड़ रखा है। क्या यह किसी से छिपा है कि देश के तमाम इलाके दशकों से बाढ़ से दो-चार हो रहे हैैं, लेकिन उससे निपटने के ठोस उपाय कहीं नहीं दिखते? यदि शहरों के ढांचे को सुधारने-संवारने की कोई ठोस पहल नहीं हुई तो शहरी जीवन और अधिक कष्टकारी तो होगा ही, वे विकास की बदरंग तस्वीर भी पेश करेंगे।

[ मुख्य संपादकीय ]