हाल में भारत ने अपने पश्चिमी एशिया के सहयोगी देशों से सधे कदमों से संपर्क स्थापित किया। बीते सप्ताह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इंडिया-अरब लीग कोऑपरेशन फोरम की पहली मंत्री स्तरीय बैठक में शिरकत करने बहरीन की यात्र पर गई थीं। ऐसे समय में जब पश्चिम एशिया न सिर्फ हिंसक दौर से गुजर रहा है, बल्कि संप्रदायों के आधार पर बंटता जा रहा है तब उनकी यह यात्र अरब लीग के 22 सदस्यीय देशों से मेलजोल बढ़ाने का एक बड़ा अवसर थी। करीब तीन महीने पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की इजरायल और फलस्तीन के दौरे से सद्भाव का जो वातावरण बना था उसे और मजबूती देने के लिए कुछ दिनों पहले ही सुषमा स्वराज भी इजरायल और फलस्तीन हो आई हैं।

उनकी यात्रा ने इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू के इस साल के अंत तक भारत आने का मार्ग प्रशस्त किया है और इस बात की संभावना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तेल अवीव जाकर इस द्विपक्षीय दौरे के चक्र को पूरा करेंगे। देशहित को सवरेपरि रखना मोदी सरकार की विदेश नीति की विशेष पहचान है। उनकी सरकार की कार्यपद्धति में यह साफ नजर भी आता है। इजरायल के साथ संबंध के मामले में उन्होंने ढुलमुल नीतियों को एक झटके में खत्म कर साहसी फैसला लिया है।

सुषमा स्वराज ने विश्व जगत को अच्छी तरह से याद दिलाया कि भारत के साथ फलस्तीन और इजरायल के संबंध कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सहित पूर्व की सरकारों द्वारा विरासत में मिली नीति के तहत ही हैं और भाजपा सरकार के पास कोई कारण नहीं है कि वह इस क्षेत्र को धर्म के चश्मे से देखे। हालांकि अब तक इसके कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। 1992 में राजनयिक संबंध स्थापित होने के बाद से ही भारत और इजरायल के संबंधों में मजबूती आती रही है। यह पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की दूरदृष्टि का कमाल था।

उन्होंने ही भारत-इजरायल दोस्ती का आधार तैयार किया। द्विपक्षीय संबंध सामान्य होने के पहले दोनों देश रक्षा संबंधी किसी समझौतों के लिए पिछले दरवाजे से वार्ता पर निर्भर थे, लेकिन अब भारत इजरायल के साथ सैन्य समझौता करने और आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने सहित पारस्परिक लाभ वाले द्विपक्षीय संबंध बनाने का इच्छुक है। पिछले कुछ वर्षो में भारत सरकार ने फलस्तीन पर इजरायल की कार्रवाई के संबंध में कोई प्रतिक्रिया देने में नरमी बरती है।

भारत इजरायल में फलस्तीन के आत्मघाती हमलों और दूसरी आतंकवादी घटनाओं की अब निंदा भी करने लगा है। भारत संयुक्त राष्ट्र में इजरायल विरोधी प्रस्ताव लाने की पहल भी नहीं कर रहा है। 1भारत गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन द्वारा लाए जाने वाले इजरायल विरोधी प्रस्तावों की भाषा को भी नरम करने लगा है। भारत के दृष्टिकोण में यह बदलाव क्यों आया है? दरअसल भारत को यह आभास हो गया है कि पश्चिम एशिया में अरब समर्थक रुख रखना उसके लिए फायदेमंद नहीं रहा है।

भारत को कश्मीर मुद्दे पर अरब देशों की ओर से कभी कोई सार्थक समर्थन नहीं मिला। सीमा पार आतंकवाद को बंद करने के लिए पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए भी अरब देशों ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। इसके विपरीत अरब देश पाकिस्तान के साथ ही मजबूती से खड़े रहे हैं। वे इस्लामिक कांफ्रेंस संगठन का इस्तेमाल इस्लामाबाद और कश्मीर में जिहाद फैलाने वाले समूहों को समर्थन देने के लिए करते हैं। यदि जॉर्डन जैसा अरब देश फलस्तीन के साथ परंपरागत रिश्ते रखते हुए अब इजरायल के साथ नए संबंध बना रहा है तो भारत ऐसा क्यों नहीं करे?

इससे भारत की कूटनीति को नया आयाम मिल सकता है।1हाल में यह खुलासा हुआ है कि 2014 के शुरुआत से इजरायल और सऊदी अरब के प्रतिनिधि अपने साझा दुश्मन देश ईरान पर चर्चा करने के लिए पांच गुप्त बैठक कर चुके हैं। हालांकि जहां सऊदी अरब इजरायल के फलस्तीन विरोधी रुख का विरोध करता है वहीं इजरायल को भी अभी सऊदी अरब द्वारा फलस्तीन को सहारा देने के लिए शुरू की गई शांति प्रक्रिया पर हामी भरनी है।

इसके बाद भी दोनों देश मौजूदा रणनीतिक खतरों को मात देने के लिए एकजुट हुए हैं। उन्हें लगता है कि वे मिलकर चुनौतियों का सामना कहीं बेहतर ढंग से कर सकते हैं। भारत के रणनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए 1990 के बाद की सभी सरकारों ने फलस्तीन और इजरायल के बीच एक बारीकसंतुलन बनाए रखा। इसके लिए उन्होंने एक तरफ फलस्तीन के हक में आवाज उठाना जारी रखा तो दूसरी तरफ इजरायल के साथ वाणिज्यिक और रक्षा समझौतों को विस्तार भी दिया।

भारत इजरायली हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है। भारत 2013 में एशिया में इजरायल का चीन और हांगकांग के बाद तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार था। देश का घरेलू राजनीतिक परिवेश भारत और इजरायल के संबंधों को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। इजरायल भारत का एक अच्छा दोस्त रहा है, लेकिन नई दिल्ली इजरायल से अपनी मित्रता जाहिर करने में संकोच करती रही है। ऐसे महत्वपूर्ण समय में जब भारत को इजरायल की सबसे ज्यादा जरूरत थी तब भी उसने हाथ नहीं खींचे।

मई 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद जब दूसरे प्रमुख देशों ने भारत को अपनी प्रौद्योगिकी निर्यात पर रोक लगा दी तब भी इजरायल भारत को अपने हथियारों की बिक्री जारी रखने का इच्छुक था। इजरायल ने 1999 में करगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना की स्थिति का पता लगाने में माहिर मानव रहित विमान भारत को दिया था, जिसने भारत की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जून 2002 में ऑपरेशन पराक्रम के रूप में भारत ने जब पाकिस्तान पर सीमित सैन्य कार्रवाई का मन बनाया था तब इजरायल ने विशेष विमान से जरूरी साजो-सामान भेजे थे। आतंकवाद ने दोनों देशों को समान रूप से प्रभावित किया है। दोनों देशों को न केवल अपनी सीमाओं के अंदर के सक्रिय आतंकी तत्वों से खतरा है, बल्कि पड़ोसी देशों से घुसपैठ करने वाले आतंकी भी चुनौती बने हुए हैं।

इसके बावजूद पूर्व की सरकारों ने इजरायल के साथ संबंधों को जाहिर करने में कोताही बरती। कूटनीति में उच्च स्तर पर दोस्ती की प्रगाढ़ता का सार्वजनिक प्रदर्शन उतना ही जरूरी होता है जितना कि विरोधियों को खुलेआम चेतावनी देना। मोदी सरकार ने पूर्ववर्ती सरकारों की बदनाम इजरायल नीति का परित्याग कर सूझबूझ का परिचय दिया है।

इजरायल के साथ खुला संबंध रखना भारत के हित में है। इससे तेल अवीव नई दिल्ली को वह दर्जा दे सकता है जिसका कि वह हकदार है। सुषमा स्वराज के दौरे से यह स्पष्ट हो गया कि भारत भी इजरायल और फलस्तीन से संबंधित अपनी प्रतिबद्धताओं में संतुलन स्थापित करने की कोशिश करेगा और साथ ही अपने संबंधों को नया आयाम देते हुए विभिन्न क्षेत्रों में आपसी सहयोग आगे बढ़ाएंगे।

(लेखक हर्ष वी पंत किंग्स कॉलेज, लंदन में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्राध्यापक हैं)