जब धान की खरीद का कार्य अपने चरम पर हो, इससे जुड़े लोगों व संस्थाओं का रूठना-नाराज होना कतई समझदारी नहीं कही जा सकती है। यह राहत की बात है कि कई दिनों से चली आ रही राइस मिल मालिकों की हड़ताल खत्म हो गई जिससे धान खरीद का कार्य सुचारू रूप से चलने की उम्मीद जगी है। अच्छा तो यह होता कि हड़ताल की नौबत ही नहीं आती और यह जिम्मेदारी भी सरकार की ही थी। राइस मिल मालिक अर्से से होल्डिंग चार्ज, डैमेज कट और वर्ष 2011 में सी-फार्म टैक्स के संबंध में अपनी आपत्तियां जता रहे थे। निश्चित रूप से कुछ मांगों को मानना सरकार के लिए भी आसान नहीं था, लेकिन यह भी नहीं लगना चाहिए था कि वह हठ पाले हुए है। जिस तरह अब राइस मिल मालिकों की मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जा रहा है, वह और पहले भी हो सकता था। केंद्र से अनुमति लेकर समय से पहले 24 सितंबर को ही धान की सरकारी खरीद शुरू कराने का क्या पूरा लाभ उठाया जा सका? हफ्तेभर बाद भी सिर्फ खरीद न होने की शिकायत को लेकर जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। अधिकारियों का कहना है कि तैयारी पूरी है और धान अभी मंडी में नहीं आ रहा, जबकि किसानों का कहना है कि कोई खरीदने वाला नहीं है।

सरकारी खरीद एजेंसियां तो सुस्त थीं ही, राइस मिल मालिकों की हड़ताल बड़ा प्रभाव डाल रही थी। प्रदेश में करीब 900 राइस मिलें हैं जिनमें 800 के आसपास सप्ताह भर से हड़ताल पर थीं। किसानों की चिंता सिर्फ खरीद में बाधा की नहीं है। धान का उचित मूल्य नहीं मिलना उनके लिए परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। किसानों का कहना है कि करीब एक एकड़ धान की फसल तैयार करने में 15 से 17 हजार रुपये तक की लागत आती है। यानी एक क्विंटल धान पर लगभग 2 हजार रुपये, जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 1450 रुपये है। हालात ऐसे पैदा कर दिए गए हैं कि किसानों को औने-पौने दामों पर फसल बेचनी पड़ रही है। कड़े मापदंड का फायदा व्यापारी उठा रहे हैं। जब तक सरकार इनमें रियायत देगी, कम कीमतों पर वे इसे खरीद लेंगे। यह अच्छी बात है कि सरकार इस बार पीबी 1509 की खरीद करा रही है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि तमाम चुनौतियों से लड़कर किसान फसल उपजाता है, लेकिन लाभ तो दूर लागत निकलनी मुश्किल हो जाती है। फिर वह क्या करे?

[स्थानीय संपादकीय: हरियाणा]