---जरूरत स्वप्रेरणा की है। यदि बड़ा मंगल हमारा पुण्य पर्व है तो सफाई को धर्म मानना चाहिए। ---जेठ के महीने में पवनपुत्र हनुमान के पूजा पर्व के रूप में मनाए जाने वाले 'बड़ा मंगल' के प्रति लोगों में बढ़ रहा उत्साह राजधानी की उत्सवधर्मिता का परिचायक जरूर है लेकिन इसने नैतिक बोध के सवाल भी खड़े किए हैं। बड़े मंगल चार पड़ते हैं लेकिन हर मंगलवार के बाद बुधवार सुबह ऐसे ही एक सवाल के साथ शुरू होती है कि आखिर श्रद्धा और आस्था के अनुयायी सड़कों पर इतना कचरा फेंककर निश्चिंत कैसे रह लेते हैं। ईश्वर की आराधना का आरंभ ही मंदिरों की सफाई से होता है, फिर हजारों लोगों को भोजन कराने के बाद उनके पत्तलों को उठाने का पुण्यभागी बनने से लोग क्यों किनारा करते हैं। इसमें कोई बड़ी समस्या भी नहीं, बस सफाई के प्रति चेतना चाहिए। भंडारे के आयोजन के साथ ही वहां होने वाली गंदगी साफ करने के लिए यदि पहले ही प्लान कर लिया जाए, तो किसी भी सड़क पर गंदगी नहीं दिखाई देगी। लेकिन, दुर्भाग्यवश यह हमारी चेतना का हिस्सा नहीं। दूसरी ओर हमारे सामने गुरुद्वारों की मिसाल है, जहां लोग परिसर की सफाई करने के साथ ही जूठे बर्तन साफ करने को अरदास के हिस्से में शामिल करते हैं। ऐसे लोगों को देखते ही खुद श्रद्धा से सिर झुक जाता है, मानो खुद देवता उनमें वास कर रहे हों। वस्तुत: जरूरत स्वप्रेरणा की है। यदि बड़ा मंगल हमारा पुण्य पर्व है तो सफाई को धर्म मानना चाहिए। सफाई के संस्कार पूरे शहर में होने चाहिए। इंदौर यदि आज नंबर एक है तो इसलिए कि वह सफाई के लिए रात में जागता है और लोग भी अपने इस दायित्व के प्रति गंभीर हैं। दूसरी ओर मिलेनियम प्लस शहरों की कैटेगरी में सफाई के क्षेत्र में लखनऊ का रैंक ५१वां हैं। इस उदासीनता ने ही ४३४ शहरों की सूची में राजधानी को २६९वें रैंक में रखा है और यदि प्रदेश की बात की जाए तो इसमें भी इसका नंबर दस है। बात यहीं तक नहीं है। लखनऊ में प्रतिदिन लगभग १३०० टन कचरा निकलता है जबकि इसके आधे का भी निस्तारण नहीं हो पाता। यदि सफाई नियोजित हो तो कचरे का निस्तारण भी आसान हो जाता है। ऐसे में सफाई को भी आराधना का हिस्सा ही माना जाना चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]