----मनमानी तो विद्यालय पहले भी करते रहे हैं लेकिन, पहली बार यह सार्थक दिशा में है क्योंकि बच्चे अपने महापुरुषों के प्रेरक प्रसंगों से अवगत हो सकेंगे।----आदेश जारी होने से पहले ही कुछ स्कूलों ने सोमवार को पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जयंती के अवकाश पर स्कूल खोलने का फैसला कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मंशा को समर्थन दे दिया है। विद्यालयों की इस पहल को नियमों-कानून के पालन की बहस से परे हटते हुए कार्यसंस्कृति बदलने की शुरुआत के रूप में देखा जाना चाहिए। मनमानी तो विद्यालय पहले भी करते रहे हैं लेकिन, पहली बार यह सार्थक दिशा में है क्योंकि पढ़ाई के साथ ही बच्चे महापुरुषों के प्रेरक प्रसंगों से भी अवगत हो सकेंगे। कुछ विद्यालयों में ही सही लेकिन, सोमवार को वहां के बच्चे यह तो जान सकेंगे कि चंद्रशेखर कौन थे और भारतीय समाज और राजनीति में उनका क्या योगदान था। लगे हाथ पिछले दो दशकों के शैक्षिक परिदृश्य पर भी गौर किया जाना चाहिए, विशेष रूप से निजी स्कूलों की कार्यशैली पर जो शिक्षा को बाजार के उस स्तर पर ले गए हैं, जहां भारतीय संस्कृति, संस्कारों और सरोकारों का महत्व कम होता गया है। पौराणिक आख्यानों और महापुरुषों की उपेक्षा भी इसी का हिस्सा रही है और कहा जा सकता है कि बच्चों को नंबर गेम की प्रतिस्पर्धा में फंसाकर ऐसा किया गया।सिर्फ इस फैसले से ही नहीं, कई अन्य निर्णयों से भी योगी सरकार ने बच्चों की समग्र शिक्षा के प्रति अपनी गंभीरता जताई है। हालांकि चुनौतियां और भी हैं। एक बड़ी जरूरत सरकारी विद्यालयों में पठन-पाठन का माहौल बनाना, अशासकीय विद्यालयों में प्रबंधन की मनमानी पर लगाम लगाना और निजी विद्यालयों की तानाशाही पर शिकंजा कसने की होगी। निजी शैक्षिक संस्थानों के अपने नियम-कानून हैं और उनमें सरकार की अनदेखी की प्रवृत्ति है। इन विद्यालयों में न ट्यूशन फी के मानदंड तय हैं और न ही किताबों और यूनिफार्म के एवज में लिए जा रहे शुल्क पर लगाम है। इस बाजारीकरण ने ही निजी विद्यालयों की संख्या बढ़ाकर बीस हजार तक कर दी है पर जिन्हें अब नियमों की कठोर परिधि में बांधने का वक्त आ गया है। कुछ विद्यालय खुद को पारदर्शी घोषित कर अन्य विद्यालयों की अगुवाई कर सकते हैं, लेकिन क्या वह ऐसा करेंगे, प्रश्न यह है।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]