कांग्रेस की मुसीबत खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। आम चुनावों की घोषणा के बाद से शायद ही कोई दिन ऐसा बीता हो, जब किसी कांग्रेस नेता के पार्टी छोड़ने या नाराज होकर घर बैठने अथवा अपने पद से त्यागपत्र देने की खबर न आई हो। इसी सिलसिले के बीच गत दिवस यह खबर आई कि इंदौर से कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति ने नामांकन वापसी के अंतिम दिन उम्मीदवारी वापस ले ली और भाजपा नेताओं के साथ हो लिए।

इंदौर में तो मतदान होगा, क्योंकि कुछ प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं, लेकिन सूरत में इसकी नौबत ही नहीं आई, क्योंकि वहां कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश कुंभानी के प्रस्तावकों के हस्ताक्षर फर्जी होने के चलते उनका नामांकन रद हो गया और इसी के साथ निर्दलीय उम्मीदवारों ने अपनी दावेदारी वापस लेकर भाजपा प्रत्याशी मुकेश दलाल के निर्विरोध निर्वाचन का रास्ता साफ कर दिया।

जब नीलेश कुंभानी का नामांकन रद हुआ था, तब कांग्रेस नेताओं ने देश में अघोषित तानाशाही आ जाने का शोर मचाते हुए भाजपा पर तरह-तरह के आरोप लगाए थे, लेकिन एक हफ्ते बाद उन्हें कुंभानी को पार्टी से निकालना पड़ा, क्योंकि वह नामांकन रद होने के बाद ही लापता हो गए थे। उनके प्रस्तावक भी कांग्रेस के संपर्क से बाहर हो गए थे। कांग्रेस के स्थानीय नेता नीलेश कुंभानी को गद्दार बता रहे, लेकिन वह अब भी खुद को कांग्रेसी कह रहे हैं। इसके विपरीत इंदौर से प्रत्याशी बनाए गए अक्षय कांति भाजपा में जाने की तैयारी कर रहे हैं।

यह पहली बार नहीं, जब किसी प्रत्याशी ने अपना नामांकन वापस लेकर विरोधी उम्मीदवार की राह आसान की हो। 2014 के लोकसभा चुनाव में गौतम बुद्ध नगर के कांग्रेस प्रत्याशी मतदान से चंद दिन पहले भाजपा में चले गए थे। इसके पहले 2012 में लोकसभा उपचुनाव में कन्नौज से सपा प्रत्याशी डिंपल यादव विरोधी उम्मीदवारों के नाम वापस लेने और नामांकन न दाखिल कर पाने के कारण बिना लड़े चुनाव जीत गई थीं।

अरुणाचल प्रदेश में लोकसभा चुनाव के साथ हो रहे विधानसभा चुनाव में तो भाजपा के दस प्रत्याशी बिना लड़े चुनाव जीत गए। अतीत में अन्य अनेक नेता चुनौती के अभाव में बिना मतदान हुए लोकसभा या विधानसभा पहुंच चुके हैं, लेकिन सूरत और इंदौर के मामले कांग्रेस की दयनीय दशा को उजागर कर रहे हैं, क्योंकि उसके उम्मीदवार मुकाबले से बाहर आ गए।

दोनों स्थानों पर कांग्रेस नेता ही यह कह रहे हैं कि उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन नहीं किया गया। वैसे तो प्रमुख दलों के उम्मीदवारों के प्रति कुछ न कुछ असहमति और असंतोष रहता ही है, लेकिन यह सामान्य बात नहीं कि कोई नेता प्रत्याशी बनने के बाद चुनाव लड़ने से पीछे हट जाए। अच्छा हो कि कांग्रेस नेतृत्व उन कारणों की तह तक जाए, जिनके चलते ऐसा हो रहा है और उसकी किरकिरी हो रही है।