शिवकांत शर्मा। भारतीय चुनावों में जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और सत्ता के दुरुपयोग के आरोप-प्रत्यारोप आम हैं, परंतु क्या इनकी भूमिका निर्णायक होती है? अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व कार्यकारी निदेशक और प्रख्यात अर्थशास्त्री डा. सुरजीत भल्ला का कहना है कि जीवन में सुधार को लेकर लोगों की राय और नेतृत्व पर भरोसे की भूमिका सबसे बड़ी होती है।

अपनी पुस्तक ‘हाउ वी वोट’ में उन्होंने पिछले सात दशकों के आंकड़ों की सहायता से सिद्ध करने का प्रयास किया है कि युद्ध और आतंक जैसी विपदाओं को छोड़ दें तो मतदाताओं के फैसले का 70 प्रतिशत उसकी इसी धारणा पर निर्भर करता है कि कौनसा नेतृत्व उसके जीवन में सुधार ला सकता है। यह सुधार नागरिक सुविधाओं के बिना संभव नहीं है और ऐसी सुविधाएं आर्थिक विकास के बिना संभव नहीं। डॉ भल्ला के आंकड़े दिखाते हैं कि कोविड महामारी की मार के बावजूद पिछले पांच वर्षों में आर्थिक विकास में तेजी के साथ-साथ आर्थिक विषमता का ह्रास भी हुआ है।

अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों के निष्कर्ष मुख्यत: आंकड़ों पर आधारित होते हैं। आंकड़ों के बिना उपयोगी नीतियां नहीं बन सकतीं, पर आंकड़ों को लेकर दो समस्याएं हैं। पहली विश्वसनीयता की और दूसरी व्याख्या की। सरकारें आंकड़ों में मिलावट कर सकती हैं या उन्हें गढ़ भी सकती हैं, लिहाजा उनके आंकड़े पूरी तरह भरोसेमंद नहीं। अंतरराष्ट्रीय और गैर-सरकारी संस्थाओं के आंकड़ों के अपने निहितार्थ होते हैं। आंकड़े विश्वसनीय होने पर भी उनकी व्याख्या से परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

आंकड़ों की विश्वसनीयता और व्याख्या की इन्हीं चुनौतियों को देखते हुए बहुत से लोकतांत्रिक देशों ने आर्थिक एवं सामाजिक आंकड़ों को एकत्र करने और उनकी वस्तुनिष्ठ व्याख्या के लिए केंद्रीय बैंकों की तरह की स्वायत्त संस्थाएं बना रखी हैं। ये संस्थाएं सरकार और विपक्ष की बजट और कराधान नीतियों, उनके प्रभावों, अर्थव्यवस्था, कर्ज, बेरोजगारी, महंगाई और विकास दर जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं के आंकड़े और उनकी व्याख्या करती हैं और समय-समय पर सरकार और विपक्ष को उनकी नीतियों और उनके संभावित प्रभावों के प्रति सचेत करती हैं।

ब्रिटेन की ऐसी ही स्वायत्त संस्था का नाम ओबीआर या बजट दायित्व कार्यालय है। इसकी स्थापना 2010 में ब्रिटेन के सार्वजनिक वित्तप्रबंधन का तटस्थ और प्रामाणिक विश्लेषण करने के लिए की गई थी। यह सरकार और विपक्ष की राजस्व नीतियों का विश्लेषण करते हुए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों और समाज के विभिन्न वर्गों पर उनके संभावित प्रभाव का पूर्वाकलन करती है। इसकी वजह से राजनीतिक दल उन लोकलुभावन वादों से बचते हैं, जिनके लिए धन जुटाने की कारगर योजना उनके पास न हो।

मीडिया और गैर-सरकारी संस्थाएं भी उसके आंकड़ों और आकलन का भरोसे के साथ इस्तेमाल कर सकती हैं। ऐसी तटस्थ संस्थाएं यूरोप, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया समेत कुल 37 देशों में हैं, जिन्हें राजस्व निगरानी समिति या परिषद कहा जाता है। अमेरिका में बजट नीतियों की समीक्षा और अनुमोदन चूंकि संसद ही करती है, इसलिए वहां ऐसी अलग संस्था की जरूरत नहीं है। यहां तक कि ईरान, केन्या, दक्षिण अफ्रीका, मेक्सिको और चिली में भी राजस्व नीतियों पर निगाह रखने वाली स्वायत्त संस्थाएं हैं, परंतु भारत में नहीं हैं, जहां ऐसी स्वायत्त संस्थाओं की जरूरत केंद्र ही नहीं, हर राज्य में है। स्वायत्तता के लिए इन्हें रिजर्व बैंक का हिस्सा भी बनाया जा सकता है।

भारत में जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं का राजनीतिक विरोध बढ़ रहा है, उसके चलते संभव है कि स्वायत्त बजट निगरानी संस्था का भी विरोध हो। इसके बावजूद गैर-जिम्मेदाराना लोकलुभावनवाद पर अंकुश लगाने के लिए यह जरूरी है। अन्यथा राजस्व का अधिक भाग आर्थिक विकास को गति देने वाले बुनियादी विकास के उत्पादक कामों पर खर्च होने की जगह सब्सिडी और नकद भत्ते जैसे अनुत्पादक कामों पर खर्च होने लगेगा। ऐसी संस्था होती तो सरकार से पूछ सकती थी कि अगले पांच वर्ष तक तीन चौथाई आबादी को पांच किलो मुफ्त राशन देने का क्या तुक है?

इस पर खर्च होने वाले करीब दो लाख करोड़ को उद्योगों के विकास में लगाकर रोजगार क्यों नहीं बढ़ाए जा रहे या फिर इस पैसे को गरीबी रेखा से नीचे के लोगों में बांटकर गरीबी का उन्मूलन क्यों नहीं किया जा रहा? इसी तरह कांग्रेस से पूछा जा सकता था कि 30 लाख सरकारी नौकरी, हर स्नातक और हर गरीब परिवार की महिला को एक-एक लाख प्रतिवर्ष और एमएसपी की गारंटी जैसे वादों को पूरा करने के लिए लगभग 10 लाख करोड़ प्रतिवर्ष कहां से आएगा? अगर विरासत कर लगाएंगे तो उसकी दर क्या होगी?

मकान और धन-संपत्ति पर ही टैक्स लगेगा या जमीन पर भी? ऐसे टैक्स का रियल एस्टेट कारोबार पर क्या असर हो सकता है और लगभग कितना राजस्व मिल सकता है? उससे आर्थिक नुकसान अधिक होगा या कर की आमद? अमेरिका में केंद्र सरकार विरासत कर नहीं, बल्कि संपत्ति कर लेती है। संपत्ति कर लगभग सौ करोड़ रुपये से ऊपर की संपत्ति पर लगता है। विरासत कर मात्र छह राज्य सरकारें लगाती हैं, जिससे बचने के लिए लोग संपत्ति बेचकर दूसरे राज्यों में चले जाते हैं। ब्रिटेन में सवा तीन करोड़ से ऊपर की संपत्ति पर 40 प्रतिशत की दर से विरासत कर लगता है।

महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा भले अपने आप में निर्णायक न हो, लेकिन यह सीधे तौर पर जीवन में सुधार लाने से जुड़ा है, इसलिए हमेशा चर्चा में रहता है। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और रुपये की हैसियत को लेकर तमाम आंकड़े उछाले जा रहे हैं। यदि स्वायत्त आंकड़ा संस्था होती तो उसके आंकड़े संतुलित विमर्श का आधार बन सकते थे।

मुफ्त राशन लोगों की गरीबी का परिचायक है या एमएसपी की खरीद से सरकार के मत्थे पड़े अनाज के सही उपयोग का? रुपया संप्रग सरकार की तुलना में अधिक गिरा या कम? लोगों का जीवन स्तर सुधरा है या गिरा? कृषि सुधार न होने से किसानों और देश का फायदा हुआ या नुकसान? ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जो जीवन सुधार की धारणा बनाने में मदद करते हैं और चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। प्रामाणिक आंकड़ों के बिना इन पर सार्थक विमर्श संभव नहीं हो पाता। यूरोप जैसी स्वायत्त संस्था ही इसे संभव बना सकती है।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)