आम तौर पर चुनाव में बुरी तरह पराजित नेता और राजनीतिक दल अपने समर्थकों को दिलासा देने के लिए तरह-तरह के बहाने तलाश कर उन्हें तर्क रूप में पेश करने की कोशिश करते हैं। वे ऐसा इसलिए भी करते हैं ताकि अपनी गलतियों पर पर्दा डाल सकें। उन्हें ऐसा करने से कोई नहीं रोक सकता, लेकिन यह शर्मनाक है कि वे अपनी हार का दोष इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर मढ़ रहे हैं। पहले मायावती ने ईवीएम में छेड़छाड़ का आरोप मढ़ा और यह कहने की कोशिश की कि वह हारी नहीं, बल्कि उन्हें हराया गया है। अब अरविंद केजरीवाल इस बचकाने आरोप के साथ उन्हें मात देने की कोशिश कर रहे हैं कि जब अमुक-अमुक राजनीतिक पंडितों और विश्लेषकों ने यह कहा था कि पंजाब में आम आदमी पार्टी की लहर चल रही है तब फिर उन्हें इतनी कम सीटें कैसे मिल सकती हैं? उनकी मानें तो जरूर ईवीएम में कोई छेड़छाड़ की गई है। कांग्र्रेस के कुछ नेताओं ने भी ईवीएम पर अविश्वास जताया है। हालांकि इसके पहले भाजपा समेत कुछ अन्य दलों के नेता भी ऐसा कर चुके हैं, लेकिन यह स्पष्ट ही है कि केजरीवाल कुतर्क की पराकाष्ठा का परिचय दे रहे हैं। अगर मोदी सरकार के लिए ईवीएम में छेड़छाड़ करना संभव होता तो फिर वह आम आदमी पार्टी के खाते में 20 सीटें जाने देने की मेहरबानी क्यों दिखाती? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि वह पंजाब में अकाली दल को हारने ही क्यों देती और गोवा एवं मणिपुर में बहुमत से पीछे रहकर संतुष्ट क्यों होती?
उत्तर प्रदेश में भाजपा कई ऐसी सीटें हार गई जो उसके लिए प्रतिष्ठा का सवाल थीं। अगर ईवीएम का दुरुपयोग किया जाना संभव होता तो आखिर बसपा को 19 सीटें कैसे मिल गईं? इसके पहले लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली थी, लेकिन तब मायावती को ईवीएम में कोई खराबी नहीं दिखी थी। क्या यह अजीब नहीं कि आईआईटी से निकले केजरीवाल यह कहना चाह रहे कि दिल्ली विधानसभा में जब उन्हें 70 में 67 सीटें मिली थीं तब ईवीएम में सब कुछ ठीक था, लेकिन पंजाब में मन माफिक नतीजा न आते ही वे अविश्वसनीय हो गईं? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब भारत निर्मित ईवीएम की लोकप्रियता और विश्वसनीयता कई अन्य देशों में बढ़ रही तब हमारे ही कुछ नेता उस पर अविश्वास जता रहे हैं। यह निंदनीय है कि अपने संकीर्ण स्वार्थ पूरा करने के फेर में मायावती और केजरीवाल ईवीएम के साथ-साथ चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा से भी खेल रहे हैं। वे बिना प्रमाण ऐसा सिर्फ इसलिए कर रहे हैं ताकि अपने समर्थकों को गुमराह कर सकें। शायद वे आत्ममंथन करने से भी बचना चाह रहे हैं और इस सच्चाई को स्वीकार करने से भी कि अपनी पराजय के लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि चुनाव जीतने के लिए जहां मायावती ने अल्पसंख्यकवाद की सीमाएं लांघी वहीं केजरीवाल ने संदिग्ध खालिस्तानी समर्थकों को सहारा लिया। जब इन दोनों नेताओं को अपनी चुनावी रणनीति की समीक्षा करनी चाहिए तब वे ईवीएम को कसूरवार ठहराने में लगे हुए हैं। यह और कुछ नहीं खिसियानी बिल्ली वाला मामला है।

[ मुख्य संपादकीय ]