पूर्व सैनिकों के लिए लागू की जाने वाली वन रैंक वन पेंशन योजना में देरी से इंकार नहीं किया जा सकता और न ही इससे कि इस देरी को लेकर सेवानिवृत्त सैनिक बेचैन हो रहे हैं, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस योजना को तार्किक ढंग से लागू किया जाना एक चुनौती भी है। इसे लेकर अलग-अलग मत हैं कि इस योजना को किस प्रकार लागू किया जाए जिससे सभी के हितों की पूर्ति हो। शायद यही कारण है कि इस पर फैसला होने में देरी हो रही है।

वन रैंक वन पेंशन की मांग एक दशक से भी ज्यादा पुरानी है। नीति-नियंता इससे अनभिज्ञ नहीं और न वे हो सकते हैं कि पूर्व सैनिक अपनी इस मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन के साथ ही वीरता पदक लौटाने की भी पहल कर चुके हैं। सैनिकों के साथ-साथ आम जनता के लिए भी यह एक भावनात्मक मसला है। हर देशवासी चाहेगा कि सैनिकों के लिए जो कुछ भी किया जाना आवश्यक है वह प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। यदि पेंशन प्रक्रिया के निर्धारण का मसला जटिल नहीं होता तो शायद मनमोहन सरकार के समय ही कोई फैसला हो गया होता। चूंकि नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार के समय से ही यह कहते चले आ रहे हैं कि वह वन रैंक वन पेंशन के प्रति प्रतिबद्ध हैं इसलिए ऐसे सवाल उठना स्वाभाविक हैं कि आखिर एक वर्ष के कार्यकाल में इस योजना पर फैसला क्यों नहीं किया जा सका?

बावजूद इसके इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि मोदी सरकार की ओर से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि इस योजना को अप्रैल 2014 से लागू किया जाएगा और इसके लिए रक्षा बजट में अतिरिक्त वृद्धि भी कर दी गई है। जाहिर है कि सरकार के इरादों पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए। 1वन रैंक वन पेंशन योजना में विलंब को राजनीतिक रूप से भुनाने की कोशिश ठीक नहीं। दुर्भाग्य से पिछले दिनों राहुल गांधी ने ऐसा ही किया और यह जानते हुए भी कि इस योजना में विलंब के लिए मनमोहन सिंह सरकार भी उत्तरदायी है।

पिछले दिनों उन्होंने कुछ पूर्व सैनिकों से मुलाकात कर इस योजना के प्रति मोदी सरकार की संकल्पबद्धता को एक छलावा करार दिया। क्या वह इस बारे में मनमोहन सरकार द्वारा जताई गई संकल्पबद्धता को भी छलावा मानते हैं? भावनात्मक और विशेष रूप से सैनिकों से जुड़े मुद्दों को लेकर राजनीति करना ठीक नहीं। नि:संदेह यह एक भावनात्मक मामला तो है ही, एक आर्थिक मामला भी है, क्योंकि योजना को लागू करने में अच्छा-खासा धन खर्च होगा। एक समस्या इस योजना को संतुलित बनाने की भी है, क्योंकि दस साल पहले सेवानिवृत होने वाले सैनिकों की पेंशन हाल-फिलहाल सेवानिवृत सैनिकों के बराबर होगी तो इस पर भी सवाल उठ सकते हैं। चूंकि सैन्य अधिकारियों के साथ-साथ रक्षामंत्री और वित्तमंत्री की ओर से लगातार यह कहा जा रहा है कि इस मामले में करीब-करीब सहमति बन गई है इसलिए किसी के लिए भी यह ठीक नहीं कि वह इस मामले को अनावश्यक रूप से तूल देने की कोशिश करे।

(स्थानीय संपादकीय झारखंड)