स्वाभाविक जवाब
केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के विभाजन का प्रस्ताव जिस तरह लौटाया उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। ऐसा कुछ होने के अच्छे-खासे आसार थे। उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने की उत्तर प्रदेश सरकार की घोषणा के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि केंद्र सरकार ऐसे किसी प्रस्ताव पर अपनी मुहर नहीं लगाने जा रही है। अंतत: ऐसा ही हुआ और इसके लिए एक हद तक राज्य सरकार ही उत्तरदायी है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने के प्रस्ताव पर उसने न तो विधानसभा के बाहर चर्चा की और न ही अंदर। विधानसभा में यह प्रस्ताव जिस तरह महज दो मिनट में बिना किसी चर्चा के पारित हो गया उस पर सवाल खड़े होने ही चाहिए थे। इससे बड़ी विडंबना और कुछ नहीं हो सकती कि किसी राज्य के ंिवभाजन का प्रस्ताव विधानसभा में बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया जाए।
यह सही है कि उत्तर प्रदेश सरीखे बड़ी आबादी वाले राज्य के पुनर्गठन की आवश्यकता महसूस की जा रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि ऐसा कोई निर्णय रातोंरात ले लिया जाए और इस संदर्भ में आनन-फानन में पारित किए गए प्रस्ताव पर केंद्र सरकार भी अपनी मुहर लगा दे। यदि मायावती सरकार उत्तर प्रदेश के विभाजन के प्रस्ताव के प्रति गंभीर होती तो उसकी ओर से संभवत: ऐसी हड़बड़ी का प्रदर्शन नहीं किया जाता। चूंकि यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि उसका उद्देश्य इस प्रस्ताव के जरिए राजनीतिक लाभ लेना था इसलिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने भी इस कोशिश में देर नहीं लगाई कि वह ऐसा न करने पाए। इसके संकेत इससे भी मिलते हैं कि कांग्रेस प्रवक्ता ने राज्य विभाजन के प्रस्ताव को वापस लौटाने के केंद्र सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए यह कहा कि किसी पार्टी को राजनीतिक फायदा पहुंचाने के लिए राज्य की नई सीमाएं नहीं खींची जा सकतीं और नए राज्यों का निर्माण विकास तथा आम जनता की भलाई को ध्यान में रखते हुए किया जा सकता है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि इस प्रस्ताव का क्या होगा, लेकिन बेहतर होगा कि राजनीतिक दल यह समझें कि किसी राज्य का विभाजन इस तरह से नहीं होता।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तरप्रदेश]
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