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जनता का दर्द

By Edited By: Published: Wed, 24 Sep 2014 05:18 AM (IST)Updated: Wed, 24 Sep 2014 05:18 AM (IST)
जनता का दर्द

लगता है कि उत्तराखंड में जनता का दर्द किसी को महसूस नहीं हो रहा है। संवेदनशील होने की बात करने में तो सभी आगे हैं, लेकिन कौन कितना संवेदनशील है, इसका ताजा उदाहरण कर्मचारियों की हड़ताल और सरकार की इस अहम मामले में बनी उदासीनता है। पिछले दो हफ्ते से कलक्ट्रेट मिनिस्ट्रियल कर्मचारी हड़ताल पर हैं। माध्यमिक शिक्षकों ने भी अपनी मांगों को लेकर हड़ताल शुरू कर दी है। राजधानी के सबसे बड़े दून अस्पताल में सफाई कर्मचारी भी हड़ताल पर चले गए हैं। इतना ही नहीं, बल्कि नगर निगम के सफाई कर्मचारियों ने भी दशहरे के बाद हड़ताल पर जाने की चेतावनी दे डाली है। हालात पेंचीदा होते जा रहे हैं। कलक्ट्रेट कर्मचारियों की हड़ताल का मतलब है कि शहर के सबसे अहम अंग का काम बंद करना। ऐसे में समझा जा सकता है कि किस तरह की अव्यवस्था का सामना लोगों को करना पड़ रहा होगा। दो हफ्ते बीत जाने के बाद भी कर्मचारी हड़ताल पर हैं और सरकार है कि सुनवाई करने को तैयार ही नहीं। दोनों पक्ष अपनी बात पर अड़े हैं और ऐसे में नुकसान हो रहा है तो वह है बेचारी जनता का। यही जनता है जिसके लिए कर्मचारी तैनात किए गए हैं और सियासी दलों को भी इसी जनता ने वोट देकर सत्ता पर बैठाया है। इसके बावजूद जनता की परेशानी को हल करने में किसी भी दिलचस्पी नहीं दिखाई देती है। यदि ऐसा होता तो बातचीत से मसलों का हल निकलता और जनता को अपने छोटे-छोटे कामों के लिए दर-दर नहीं भटकना पड़ता। यही स्थिति शिक्षकों की है। शिक्षकों का अपनी मांगों के संबंध में विवाद सरकार के साथ है, लेकिन इसका नुकसान भुगत रहे हैं छात्र। माध्यमिक स्कूलों में पठन-पाठन के नाम पर ताले लटके हैं। कुछ स्कूलों में वरिष्ठ छात्रों ने जूनियर छात्रों को पढ़ाने की पहल की है। इन छात्रों का यह कोशिश स्वागत योग्य है और शिक्षकों को भी इससे कुछ सबक तो अवश्य लेना चाहिए। चिंता का विषय यह है कि हड़ताल जैसा कदम उठाना आसान होता जा रहा है। सरकार भी जिन मसलों को लंबी जद्दोजहद के बाद हल करती है, उन मामलों को यदि समय से निस्तारित कर दिया जाए तो नियमित अंतराल पर होने वाली हड़तालों के दुष्प्रभावों से जनता को बचाया जा सकता है। यह बात नीति-निर्धारिकों की समझ में अभी तक नहीं आ रही है। हड़ताल करने वाले संगठनों की भी कोशिश रहनी चाहिए कि जब तक बिलकुल जरूरी न हो जाए, तब तक हड़ताल करने जैसा जन विरोधी कदम नहीं उठाया जाए। छोटे प्रदेश उत्तराखंड में कार्मिकों की आए-दिन होने वाली हड़तालों से आम जन के लिए पड़ी परेशानियां पैदा हो रही हैं, इस बात को समझने की जरूरत है। सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए, जिससे हड़ताल नाम का रोग व्यवस्था से हमेशा के लिए मिट जाए। यदि ऐसी पहल नहीं होती है तो हर मामले में राज्य पिछड़ता जाएगा, जिसके लिए हम सभी जिम्मेदार होंगे।

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[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]


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