काम के साथ आलोचना का बोझ
दुनिया का हर काम पुलिस वालों के सिर है और सारी निंदा भी उन्हीं के हिस्से आती है
हाल ही में महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव संपन्न हुए। इन चुनावों के दौरान मुंबई में मतदान के दिन लेखिका शोभा डे ने एक पुलिसकर्मी का चित्र पोस्ट किया था। इसमें एक बेहद मोटे पुलिसकर्मी की तस्वीर थी। इस तस्वीर पर डे ने लिखा था, ‘मुंबई में पुलिस का भारी-भरकम बंदोबस्त।’ तब इस पुलिस वाले ने जो जवाब दिया वह डे सरीखे संभ्रांत बुद्धिजीवियों की आंखें खोल सकता है। उन लोगों को कुछ सबक दे सकता है जो अक्सर टीवी पर जब देखो तब बस पुलिस को दो हाथ लगाकर अपनी शेखी बघारते हैं। शोभा डे के पोस्ट के जवाब में इस पुलिस वाले ने कहा कि एक बीमारी के कारण उसका वजन इतना बढ़ गया है। पहले वह बिल्कुल ठीक था और मैडम डे को चाहिए कि वह उसका इलाज करा दें, क्योंकि दुनिया में कोई भी इतना मोटा नहीं होना चाहता।
हंसने के लिए भी हमें कैसी-कैसी अमानवीय तरकीबें चाहिए। कोई मोटा हो, विकलांग हो या कोई सड़क पर फिसलकर गिर पड़े तो फौरन हमारी बत्तीसी निकल आती है। वहीं अगर यह पुलिस वाला हुआ तब तो कहने ही क्या। वह आदमी नहीं, बल्कि हमेशा हमारी घृणा का पात्र है। इसलिए या तो हम उस पर हंस सकते हैं या उस पर पत्थर फेंककर कुछ उलूल-जुलूल कह सकते हैं। दुनिया का हर काम भी पुलिस वालों के सिर है और दुनिया की सारी गालियां, आलोचना और निंदा भी उन्हीं के हिस्से आती हैं। उनकी न सरकारें सुनती हैं और न ही जनता।
हाल ही में सीमा सुरक्षा बल के तेज सिंह और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जीत सिंह के जो मामले हमने देखे वे तो बस उदाहरण भर हैं। उनके दुखों को भी या तो फर्श के नीचे खिसकाने की कोशिश की गई या अनुशासन नाम के कोड़ों से पीटा गया। कुछ वर्ष पहले दंतेवाड़ा में जब 76 जवान मारे गए थे तो उनके जीवन की कई कथाएं छपी थीं। उनमें से अधिकांश गांवों के बेहद गरीब घरों से आते थे। गरीबों की तरह इनके सपने भी मामूली थे। कोई अपने टपकते कच्चे घर की छत पक्की कराना चाहता था। किसी को अपने बीमार पिता का इलाज कराना था। कोई अपनी बहन के लिए पैसे जोड़ना चाहता था जिससे उसे पढ़ा-लिखा सके और उसकी शादी करा सके। कोई गांव के घर में सिर्फ एक कूलर लगवाना चाहता था, लेकिन उनकी गरीबी इसलिए चर्चा का विषय नहीं बनी, क्योंकि वे पुलिस वाले थे और सरकारों या राज्य मशीनरी के लिए काम करते थे।
इसलिए दमन के प्रतीक थे। इसलिए इनका मरना भी बहुत से लोगों के लिए जश्न और उत्सव मनाने का मौका था। उनकी मौत पर उनके गरीब माता-पिता और अन्य परिजन फूट-फूटकर रोए, मगर उनके आंसू भी आंसू नहीं थे। यह कैसी मनुष्यता है कि किसी का मरना किसी के लिए आनंद का विषय भी हो सकता है। गरीब और गरीब का फर्क क्या सिर्फ इसलिए होना चाहिए कि कोई गरीब पुलिस और फौज में पेट पालने के लिए नौकरी करता है। इसलिए वह गरीबों के नाम पर अपनी-अपनी दुकान चलाने वालों का शत्रु होता है और उसकी मौत एक उत्सव होती है। कई बार पुलिस में काम करने वाले अपनी जान खुद ले लेते हैं। पिछले दिनों एक पुलिस वाला काम पर आया और वहां उसने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से गोली मार ली। एक पुलिस वाला खनन माफिया की जांच करने गया और वहां उसे मार दिया गया।
केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआइएसएफ) के एक जवान ने आत्महत्या कर ली। एक पुलिस वाले ने आग लगाकर जान दे दी। एक अन्य ने अपने पूरे परिवार को मारकर खुद को गोली मार ली। एक ने तो अदालत परिसर में ही खुद को उड़ा लिया। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं हम रोज पढ़ते-सुनते हैं और उन्हें एक खबर मानकर अक्सर भूल जाते हैं। जो भी पुलिस वाले या सुरक्षाबलों के लोग मरते हैं वे भी किसी के बेटे, किसी के पति, किसी के दोस्त, किसी के भाई तो होते ही हैं। साथ ही इस देश के भी उतने ही नागरिक होते हैं जितना कि कोई और। बावजूद इसके उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखता।
देश की सारी आपदाएं, सारी मुसीबतें, अपराध और हिंसा के मामलों में यही कमान संभालते हैं, मगर हम इनकी हर बात पर आलोचना करने और हर बात पर इन्हें दोषी ठहराने के अलावा क्या करते हैं। इन पर काम का बोझ इतना ज्यादा है कि जहां अस्सी हजार सुरक्षा बलों की जरूरत होती है वहां आठ हजार ही उपलब्ध होते हैं। ऊपर से कोई भी राजनेता पुलिस को अपने घर और हुक्म का नौकर समझता है। जितनी घोर अमानवीय परिस्थिति में पुलिसकर्मियों को काम करना पड़ता है उसे हम हर रोज देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। कोई त्योहार जैसे दीवाली के दिए हों या होली के रंग हों तो हम लोग परिवार के साथ भरपूर मस्ती के साथ मनाने की सोचते हैं। दूसरी ओर पुलिस के लोगों को देखें तो पाते हैं कि उनका न कोई त्योहार होता है, न मेला और न कोई खुशी। जब हम सब अपनी खुशियों के सागर में डूबे होते हैं तो पुलिस के दस्ते किसी अनहोनी की आशंका से विशेष ड्यूटी पर तैनात होते हैं। कड़ाके की सर्द रातें हों या आग उगलती गर्मी या मूसलाधार बारिश पुलिस वालों की ड्यूटी हर मौसम से बेखबर, चौराहे-दर-चौराहे लगी ही रहती है।
इनके काम के घंटों की कोई सीमा नहीं होती। प्रोन्नति की भी चिंता किसी को नहीं होती और बात तो छोड़िए बीमारी-हारी या किसी मुसीबत के वक्त भी छुट्टी आसानी से नहीं मिलती। स्टाफ कम होता है और काम का दायरा बहुत बड़ा होता है। लिहाजा इनमें से बहुत से अवसाद और तनाव के शिकार हो जाते हैं। इसलिए दिल्ली में हर साल 25 पुलिस वाले आत्महत्या कर लेते हैं। अक्सर पुलिस सुधार की बातें की जाती हैं, लेकिन वे कागजी साबित होती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस की बेहतरी के लिए जो दिशा-निर्देश बना रखे हैं उनका पालन भी शायद ही कोई करता है। पुलिस वालों को जब तक हम आदमी नहीं मानेंगे, उनके सुख-दुख के बारे में नहीं सोचेंगे और उन्हें सिर्फ रोबोट मानेंगे तब तक उनसे ही सिर्फ यह उम्मीद करना कि वे हमारी हर मुसीबत में दौड़े चले आएंगे पूरी तरह अनुचित होगा। पहले उन्हें इंसान तो मानिए। इस मामले में भी चर्चा में आने के बाद पुलिसकर्मी के इलाज की चिंता तो की गई और उपचार भी हुआ, लेकिन इसके बावजूद मूल सवाल अपनी जगह बना हुआ है।
(लेखिका क्षमा शर्मा जानी-मानी साहित्यकार और स्तंभकार हैं)