डॉ. भरत झुनझुनवाला

पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते से हटकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने फिर से संकेत दिए कि अमेरिका खुद को वैश्वीकरण से अलग कर रहा है। अमेरिका की गिनती उन अग्रणी देशों में होती है जो अभी कल तक वैश्वीकरण का मुखर समर्थक था, लेकिन अब अमेरिका पीछे हट रहा है। ट्रंप विदेश व्यापार से वैसे ही पीछे हट रहे हैं जैसे पिछड़ता दुकानदार बड़े शहर में दुकान बंद करके छोटे शहर में दुकान खोलता है। उन्होंने पड़ोसी देश मेक्सिको से होने वाले आयात पर कर बढ़ाने के संकेत दिए हैं। वह अमेरिकी कंपनियों को प्रलोभन दे रहे हैं कि वे विदेश में अपनी फैक्ट्रियां बंदकर उन्हें अमेरिका ले आएं। भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण एच1बी वीजा में कटौती करने की उनकी मंशा भी किसी से छिपी नहीं। इस वीजा के जरिये भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियां बड़े पैमाने पर इंजीनियर अमेरिका भेजती हैं। ये इंजीनियर अमेरिका में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अमेरिकी विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और हाईटेक कंपनियों में इन्हीं भारतीय इंजीनियरों का ही बोलबाला है। इनके योगदान से ही अमेरिकी कंपनियां नित नई तकनीक का आविष्कार करती हैं और दुनियाभर में उनकी बिक्री से भारी लाभ कमाती हैं। अमेरिकी समृद्धि की कुंजी इन भारतीय इंजीनियरों के हाथ में ही है। इनके कम संख्या में अमेरिका जाने से अमेरिकी कंपनियों की वैश्विक साख में गिरावट आई है। उधर अमेरिका में रोष है कि अमेरिकी इंजीनियरों के रोजगार भारतीय इंजीनियरों द्वारा हासिल किए जा रहे हैं। इस सत्य के पीछे दो कारण हैं। एक तो भारतीय इंजीनियरों का कुशल होना और दूसरा उनका किफायती होना। ट्रंप शायद यह समझे हैं कि अमेरिकी कंपनियां भारतीय इंजीनियरों को मुख्य रूप से इसीलिए काम पर रख रही हैं, क्योंकि वे कम मेहनताने में उपलब्ध हो जाते हैं। यह आंशिक सत्य ही है। ट्रंप भारतीय इंजीनियरों की काबिलियत को नजरअंदाज कर रहे हैं।
ट्रंप की नीति के अनुसार अमेरिकी कंपनियों को कुशल भारतीय इंजीनियरों के स्थान पर अकुशल अमेरिकी इंजीनियरों को नियुक्त करना पड़ेगा और वह भी ऊंचे वेतन पर। इससे इन कंपनियों का पिछड़ना तय है। इसी तरह सस्ते विदेशी माल के आयात पर रोक लगाने से अमेरिका में वस्तुओं के दाम बढ़ेंगे और इससे अमेरिकी कंपनियां और पिछड़ेंगी। अमेरिकी कंपनियां अगर स्वदेश में कारखाने लगाएंगी तब भी रोजगार सृजन कम ही होगा, क्योंकि आधुनिक फैक्ट्रियों में रोबोट से ही ज्यादा काम लिया जा रहा है। ट्रंप की इन तमाम नीतियों से अमेरिका को कुछ समय के लिए जरूर लाभ हो सकता है, लेकिन मूल रूप से ये नीतियां अमेरिका के सूर्यास्त की द्योतक हैं। ट्रंप ने पेरिस समझौते से अपनी इस सोच के तहत तलाक ले लिया कि अमेरिका में उपलब्ध सस्ते कोयले के उपयोग से अमेरिकी कंपनियों को राहत मिलेगी। मेरे आकलन में यह ऊंट के मुंह मे जीरे के समान है। अमेरिकी फैक्ट्रियां कोयले का उपयोग करें तो भी रोजगार कम ही बनेंगे, क्योंकि आजकल रोबोट का उपयोग ज्यादा किया जा रहा है। अमेरिका की मूल समस्या है कि उसके इंजीनियर वैश्विक तकनीकी प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहे हैं। अमेरिका का सूर्यास्त भारत के लिए तत्काल परेशानी पैदा करेगा जैसे बरगद का पेड़ कट जाने से नीचे उग रहे छोटे पौधों को कुछ समय तक परेशानी होती है, लेकिन बाद मे वे तेजी से बढ़ते है। विश्व का नेतृत्व करने के लिए भारत सही समय और सही स्थान पर है। विश्व अर्थव्यवस्था में पर्यटन, सिनेमा, ब्यूटी पार्लर जैसी सेवाओं का हिस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है जबकि कपड़े, कार और गेहूं जैसी भौतिक वस्तुओं का हिस्सा घटता जा रहा है। वर्तमान में अमेरिका जैसे विकसित देशों की आय मे सेवाओं का हिस्सा लगभग 88 प्रतिशत है और यह बढ़ता ही जा रहा है। तमाम सेवाएं ऐसी हैं जिन्हें रोबोट प्रदान नहीं कर सकता। शिक्षा, स्वास्थ्य, शोध, पर्यटन, सिनेमा और अनुवाद जैसी सेवाओं से ही दुनियाभर में रोजगार के अवसर बन रहे हैं।
भारत इन सेवाओं को उपलब्ध कराने मे सक्षम है। हमारे पास बड़ी संख्या में कुशल कारीगर उपलब्ध हैं। चूंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सेवाओं का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है इसलिए सेवाओं के विस्तार से हम सहज ही विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्र बन सकते हैं। पश्चिमी देशों के वर्चस्व के पीछे आधुनिक तकनीक है और उनके सृजन में भारतीय इंजीनियरों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सवाल यह है कि भारतीय इंजीनियर अमेरिका में सफल और भारत में असफल क्यों हैं? इस विरोधाभास का कारण हमारा कमजोर बुनियादी ढांचा है। सात सितारा होटल अथवा श्रेष्ठ शोध संस्थान की सफलता के लिए जरूरी है कि सड़क सही हो जिससे आवाजाही सुगम हो। कानून व्यवस्था सही हो जिससे चौराहे पर छीनाझपटी न हो। पश्चिमी देश इन्हीं पहलुओं के दम पर सफल हैं। अगर हम इन व्यवस्थाओं को सुधार लें तो माइक्रोसॉफ्ट जैसी वैश्विक कंपनियों के लिए यह फायदेमंद होगा कि वे अपने मुख्यालय को अमेरिका से भारत स्थानांतरित कर दें। भारतीय कंपनियां भी शीर्ष पर पहुंच सकती हैं। देसी कंपनियों के पिछड़ने का एक कारण इन सुविधाओं की कमी भी है।
मौजूदा राजग सरकार बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए कई कारगर कदम उठाने के लिए बधाई की पात्र है। राजमार्ग बन रहे हैं। रेलवे का कायाकल्प हो रहा है। नागर विमानन सेवाओं का विस्तार हो रहा है। चौबीसों घंटे बिजली उपलब्ध हो रही है। हमारे हवाई अड्डे दुनिया के बेहतरीन हवाईअड्डों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। मेरा मानना है कि हमें जल्द ही बेहतरीन बुनियादी ढांचा मिल जाएगा, लेकिन सामाजिक संस्थाओं में अभी भी हम बहुत पीछे हैं। कानून व्यवस्था लचर है। आज भी विदेशी पर्यटकों को थाने में राहत कम ही मिलती है। न्याय व्यवस्था और भी बदहाल है। सामान्य धोखाधड़ी के मामले को निपटाने में भी निचली अदालतों को तीन-चार साल लग जाते हैं। इसके बाद मामला ऊपरी अदालतों में उलझा रहता है। रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को तमाम तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। देश के सामने इस सामाजिक संरचना को सुधारने की चुनौती है। यह सुधर जाए तो हम सेवाओं और नई तकनीकों के आविष्कार का वैश्विक केंद्र बन जाएंगे। अमेरिका का सूर्यास्त और भारत का सूर्योदय एक साथ होगा।
पेरिस समझौते से अमेरिका के पीछे हटने से निश्चित रूप से धरती का तापमान बढ़ेगा। इससे जुड़ी समस्याएं भी बढ़ेंगी। इन समस्याओं का सामना करने की चुनौती पहले ही थी, अब यह चुनौती और कठिन हो जाएगी। इन्हें वही देश झेल पाएगा जिसमें भौतिक एवं सामाजिक विविधिता अधिक होगी। भारत में उत्तराखंड के बर्फ से ढंकेपहाड़ से लेकर अंडमान के समुद्र से घिरे द्वीप विद्यमान हैं। हमारी सामाजिक विविधिता भी ज्यादा है। पंजाब में भटूरे और केरल मे इडली का सेवन किया जाता है। प्रसंस्कृत खाने यानी प्रोसेस्ड फूड का हम तुलनात्मक रूप से कम ही उपयोग करते हैं। हम प्रकृति के भी ज्यादा नजदीक रहते हैं। हीटर और एयर कंडीशनर का भी उपयोग कम करते हैं। हमारे शरीर में लोच है। इन विविधताओं के कारण धरती के बढ़ते तापमान को आसानी से झेल लेंगे। एक तरह से ट्रंप मूल रूप से हमारे लिए लाभप्रद हैं। हमारे सूर्योदय का वह रास्ता बना रहे हैं। बस हमें अपनी कमर कसने की जरूरत है।
[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]