( बलबीर पुंज )

हाल में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने हिंदुओं की घटती आबादी पर अपनी बात क्या रखी वामपंथी बौद्धिक चिंतन की धुरी माने जाने वाले सेक्युलरिस्ट एकाएक तिलमिला उठे। अरुणाचल प्रदेश से सांसद और बौद्ध अनुयायी रिजिजू का बयान असल में कांग्रेस को जवाब था। कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि भाजपा अरुणाचल को हिंदू राज्य बनाने की कोशिश में जुटी है। रिजिजू ने इसका जवाब ट्वीट के जरिये दिया। क्या रिजिजू के ट्वीट पर चर्चा से पहले ऐसे सवालों के ईमानदारी से जवाब नहीं तलाशे जाने चाहिए: क्या भारत सहित पूरे उपमहाद्वीप में हिंदुओं की जनसंख्या लगातार कम नहीं हो रही है? आखिर मजहब का देश की एकता-अखंडता के साथ सीधा संबंध है या नहीं? क्या यह सच नहीं कि देश के जिन इलाकों में आज हिंदू अल्पसंख्यक हैं वैसे अधिकांश इलाके आज अलगाववाद से त्रस्त हैं?
विभाजन के बाद जिस भू-भाग में सिंधु-सरस्वती नदी के तट पर वैदिक साहित्य की रचना हुई आज वहां उसकी मूल संस्कृति का नाम लेने वाले सम्मान के साथ जीने के अधिकार से भी वंचित हैं। फिर कैसे कहा जा सकता है कि मजहब भूगोल, राजनीति और सांस्कृतिक मूल्यों को निर्धारित नहीं करता है? क्या यह सच नहीं कि भारत के उन्हीं इलाकों में ही वैसे शाश्वत मूल्य प्रभावी हैं जो हिंदू बहुल हैं? गुजरात, राजस्थान, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे हिंदू बहुल प्रांतों में यदि कोई गैर-हिंदू मुख्यमंत्री बन सकता है तो मुस्लिम एवं ईसाई बहुल राज्यों में कोई हिंदू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन पाता? मुसलमानों की ऐसी लंबी सूची है जो अलग-अलग राज्यों में शीर्ष पदों तक पहुंचे। ईसाई धर्म के अनुयायी दिवंगत वाई एस राजशेखर रेड्डी हिंदू बहुल आंध्र के मुख्यमंत्री रहे। यहां तक कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भारत में राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे शीर्ष पदों तक भी पहुंचे। क्या ईसाई बहुल मिजोरम, मेघालय या नगालैंड में अभी तक कोई भी हिंदू मुख्यमंत्री बन पाया है? सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले राज्य जम्मू-कश्मीर में क्या कोई गैर-मुस्लिम मुख्यमंत्री बन सकता है? मजहब और सेक्युलरवाद के रिश्तों को समझने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में जम्मू-कश्मीर एक उपयुक्त उदाहरण है। कश्मीर घाटी शताब्दियों से मुस्लिम बहुल रही है। एक लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष भारतीय व्यवस्था का भाग होते हुए भी 1990 के बाद हिंसा और बल प्रयोग से आजिज आकर हिंदू यहां अपनी ही जन्मभूमि छोड़ने को मजबूर हो गए। उनके अधिकांश पूजा-स्थलों पर या तो कब्जा कर लिया गया या फिर उन्हे जमींदोज कर दिया गया। जो शेष बचे है वे अब सुरक्षा घेरे में रहते है। संविधान में पंथनिरपेक्षता सुनिश्चित है। इसके बावजूद घाटी में इस संवैधानिक मूल्य का मखौल ही उड़ाया जाता है। इसी तरह असम, पश्चिम बंगाल और केरल के जिन इलाकों में हिंदू अल्पमत में हैं वहां के हालात भी चिंतित करने वाले हैं। दिल्ली के समीप कैराना से पिछले वर्ष आईं खबरें भी कड़वी हकीकत को ही बयान करती हैं।
1941 में अखंड भारत की कुल जनसंख्या 38.8 करोड़ थी। जिसमें हिंदू 74 प्रतिशत यानी 28.7 करोड़ थे। वहीं 24.5 प्रतिशत के साथ मुसलमान आबादी 9.4 करोड़ थी। तब देश में 74.2 लाख ईसाई थे। वहीं 2011 में भारतीय उपमहाद्वीप में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की कुल आबादी 152.8 करोड़ थी। जिसमें हिंदू 102.7 करोड़, मुस्लिम 47 करोड़ और ईसाई 3.1 करोड़ थे। 14 अगस्त, 1947 से पूर्व अखंड भारत की कुल जनसंख्या में 75 प्रतिशत हिंदू थे, लेकिन अब हिंदू आबादी घटकर 67.2 प्रतिशत रह गई है। यदि 1947 का जनसांख्यिकीय अनुपात रहता तो 2011 में हिंदुओं की जनसंख्या 115 करोड़ होनी चाहिए थी, किंतु यह इन तीन देशों में लगभग 102 करोड़ रही। प्रश्न है कि 13 करोड़ हिंदू कहां गए? 1947 में भारत के रक्तरंजित विभाजन के समय खंडित भारत में जहां हिंदू (सिख, जैन, बौद्ध) 90 प्रतिशत से अधिक थे वहीं पाकिस्तान में यह आंकड़ा 24 प्रतिशत और बांग्लादेश में 28 प्रतिशत था। पाकिस्तान में आज जहां हिंदू-सिख 1.5 प्रतिशत ही रह गए हैं वहीं बांग्लादेश में यह आंकड़ा 9 प्रतिशत से भी नीचे चला गया है। अरुणाचल प्रदेश में हिंदुओं की आबादी सबसे ज्यादा घटी है। 2001 में यहां 34.6 प्रतिशत हिंदू आबादी थी जो 2011 में घटकर 29.4 प्रतिशत रह गई। 1971 में अरुणाचल की कुल 4.68 लाख आबादी में एक प्रतिशत भी ईसाई आबादी नहीं थी, पर 2011 तक आते-आते राज्य में ईसाई जनसंख्या का आंकड़ा 30.2 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया। 1971 में जहां ईसाई आबादी 3,684 थी वह 2001 में 2.05 लाख और 2011 में दोगुनी बढ़कर 4.18 लाख हो गई। बौद्ध अनुयायियों की संख्या भी 2001 में 13 प्रतिशत से घटकर 2011 में 11.77 प्रतिशत हो गई। 2011 की जनगणना के अनुसार असम की 3.12 करोड़ आबादी में से 1.91 करोड़ हिंदू और 1.07 करोड़ मुस्लिम थे। 2001 की तुलना में 2011 में मुस्लिम आबादी 3.3 प्रतिशत तक बढ़ी। दूसरी ओर 1991 से असम में हिंदुओं की वृद्धि दर निरंतर घट रही है। 1991 में यह दर 14.95 प्रतिशत थी, जो 2001 में घटकर 10.89 प्रतिशत पर पहुंच गई। पड़ोसी प. बंगाल में भी हिंदुओं की वृद्धि दर तेजी से घट रही है।
पिछले 11 दशकों के दौरान केरल में भी हिंदू आबादी 14 प्रतिशत घटी है। 1901 में यहां 69 प्रतिशत रही हिंदू आबादी 2011 में घटकर 55 प्रतिशत रह गई। इसी अवधि में मुस्लिम आबादी में 9.6 प्रतिशत तो ईसाई आबादी में 4.3 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। अगर कुल संख्या की बात की जाए तो भारत में मुसलमानों की सबसे ज्यादा तादाद यूपी में है। उत्तर प्रदेश में 2001 की तुलना में 2011 में हिंदू आबादी 0.88 प्रतिशत घटी है वहीं इसी दौरान मुस्लिम जनसंख्या 0.77 प्रतिशत बढ़ी है। इस अवधि में अकेले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही मुस्लिम आबादी 39.5 प्रतिशत से बढ़कर 41.4 प्रतिशत हो गई। यह स्थापित सत्य है कि देश के जिस इलाके में हिंदुओं की आबादी और परंपराओं को क्षय हुआ है वहां अलगाववाद की समस्या बढ़ी है। भारत में पंथनिरपेक्षता और बहुलतावाद की जड़ें संविधान में नहीं, बल्कि यहां की सनातन संस्कृति और सहिष्णु जीवन दर्शन में ही समाई हैं। ऐसे में हिंदुओं की घटती आबादी बहुलतावाद और पंथनिरपेक्ष जीवन मूल्यों के लिए खतरा साबित हो सकती है।
[ लेखक , वरिष्ठ स्तंभकार एवं राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]