(विवेक काटजू)

यदि दो दशक पहले का उत्तर प्रदेश का चुनावी परिदृश्य याद करें तो पाएंगे कि 1996 के विधानसभा चुनावों से पहले जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने बसपा के साथ कांग्रेस का गठजोड़ किया था तब भी बसपा के मुकाबले कांग्रेस का वजूद कमजोर था। सीटों के बंटवारे में जहां बसपा को 297 सीटें मिलीं थीं वहीं कांग्रेस के खाते में 125 सीटें आईं थीं। चुनाव में बसपा को 67 और कांग्रेस को 33 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। उस समय कई कांग्रेसी नेताओं ने यही महसूस किया था कि राव जानबूझकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को कमजोर करना चाहते हैं। 2007 में खुद राहुल गांधी ने कहा था कि ‘1996 का गठबंधन खुद को नीलाम करने जैसा था।’ स्पष्ट रूप से उस गठबंधन को लेकर राहुल की नाराजगी की वजह नरसिंह राव द्वारा उसमें कांग्रेस की कमतर भूमिका स्वीकार करने को लेकर थी। अब बीस साल बाद राहुल गांधी ने अखिलेश यादव के साथ गठजोड़ किया है जिसमें कांग्रेस सहायक भूमिका में है। उन्हें इस फैसले की जिम्मेदारी लेनी होगी। ऐसा करके उन्होंने 1996 के फैसले की अपनी आलोचना को ही दरकिनार किया है। राहुल का फैसला उत्तर प्रदेश मे अपने लिए कोई जनाधार न बना पाने की नाकामी को ही जाहिर करता है। यह स्वाभाविक है कि राहुल गांधी ने यह निर्णय इस आधार पर लिया हो कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए राज्य की सत्ता में कम से कम कुछ हिस्सेदारी तो जरूरी होगी। सूबे की सत्ता से कांग्रेस का वनवास 27 सालों से भी लंबा खिंच गया है। इसके नतीजे के तौर पर राज्य में उसका आधार सिकुड़ता गया और कार्यकर्ता उससे किनारा करते गए। शायद राहुल गांधी का यह मानना है कि सत्ता का स्वाद चखने के बाद यह रुझान बदल जाएगा। यह संभव है कि फौरी तौर पर राजनीतिक फायदे के लिहाज से यह कदम सही हो, लेकिन यह इस विश्लेषण का मौका उपलब्ध कराता है कि राज्य में पार्टी का कायाकल्प किन वजहों से नहीं हो पाया और क्या राहुल ने राष्ट्रीय नेता बनने की अपनी हसरतों को पलीता लगाया?
यह जरूरी नहीं कि उत्तर प्रदेश पर जिसका राजनीतिक नियंत्रण हो उसके हाथ में ही पूरे देश की कमान आ जाए, लेकिन इस तथ्य को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि उत्तर प्रदेश का किला फतह किए बिना कोई देश का निर्विवाद नेता नहीं बन सकता। यही वजह है कि जब जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का राज्य पर नियंत्रण रहा तो संसद में भी उन्हें पूर्ण बहुमत मिलता रहा और उन्होंने देश पर बिना किसी परेशानी के शासन किया। 1990 के बाद जब उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पकड़ से फिसल गया तो कांग्रेस को गठबंधन सरकार का आश्रय लेना पड़ा। अटल बिहारी वाजपेयी के समय भी भाजपा ने 1998 के लोकसभा चुनावों में राज्य की 57 सीटें हासिल की थीं। वाजपेयी ने भी गठबंधन सरकार ही चलाई। 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी को जबरदस्त जीत केवल इसी वजह से नहीं मिली कि पार्टी को हिंदी भाषी राज्यों में प्रचंड जीत हासिल हुई, बल्कि उस जीत में उत्तर प्रदेश में जीती 73 सीटों का बेहद अहम योगदान रहा। तीन दशकों में पहली बार लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल करने वाले नेता बनने के बावजूद मोदी को गठबंधन पर आश्रित रहना पड़ा, क्योंकि राज्यसभा में आंकड़े भाजपा के पक्ष में नहीं हैं। यह एक बार फिर उत्तर प्रदेश पर नियंत्रण की जरूरत को दर्शाता है।
राजनीतिक विश्लेषक इसकी तमाम वजह बताते हैं कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में क्यों नाकाम रहे? उनमें से सभी कहीं न कहीं सही हैं, लेकिन नाकामी की सबसे बड़ी वजह उत्तर प्रदेश की जाति आधारित राजनीति का तोड़ न खोज पाने की उनकी अक्षमता है। वह भारतीय राजनीति में सही अर्थों वाले बदलाव का वाहक बनने की कोशिश कर सकते थे। वह पुराने ढर्रे की उस राजनीति के जाल में ही फंसे रहे जिसमें कांग्रेस की जमीन लगातार दरकती गई। पंरपरागत रूप से कांग्रेस ब्राह्म्ण, मुस्लिम और अनुसूचित जाति के मतदाताओं के सहारे रही है, मगर वक्त के साथ इन वर्गों की सियासी गोलबंदी की दिशा भी बदलती गई। 1980 के दशक के अंत तक कांग्रेस के ये समर्थक वर्ग भाजपा, सपा और बसपा के पीछे लामबंद होने लगे।
कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा पर निशाना साधने पर ध्यान केंद्रित किया और इस क्रम में उसने अपने कथित धर्मनिरपेक्ष एजेंडे के तहत भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी के तौर पर स्थापित करने की कवायद की। ऐसा करते हुए उसे अंदाजा ही नहीं हुआ कि उत्तर प्रदेश में उसका जातिगत गणित गड़बड़ाता जा रहा है। खुद को गरीब हितैषी दिखाने की उसकी कोशिशें अनुसूचित जातियों को समझ नहीं आईं। अनुसूचित जाति के परिवारों के साथ राहुल गांधी के मेल-मिलाप ने पार्टी की रणनीति के खोखलेपन को ही उजागर किया। सांप्रदायिक एजेंडे के खिलाफ खुद को धर्मनिरपेक्षता का झंडाबरदार बताने की राहुल गांधी की रणनीति को उत्तर प्रदेश के मतदाता पहले ही नकार चुके थे लिहाजा उन्हें नई तरकीब आजमाने की जरूरत थी। इसका एक संभावित विकल्प यह होता कि वे आरक्षण को जायज ठहराते हुए जातिवादी राजनीति का पुरजोर विरोध करते।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की लगातार नाकामी की एक वजह राहुल गांधी की मंशा भी है जिसमें इस गंभीरता का अभाव रहा कि वह उत्तर प्रदेश में टिककर राष्ट्रीय स्तर पर भूमिका निभाएंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि जब कांग्रेस नेतृत्व उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना चाहता था तब उन्होंने क्षेत्रीय नेता के तौर पर सक्रिय होना पसंद किया। इसकी परिणति यह हुई कि वह अखिलेश यादव के सहायक बन गए। शायद तमाम लोग दलील देंगे कि लोकसभा में मोदी के बहुमत के बावजूद देश में एक पार्टी के वर्चस्व वाले दिन लद गए। वे 1989 से 2014 की अवधि की मिसाल देंगे जो दर्शाती है कि गठबंधन भारतीय राजनीति का स्वाभाविक स्वरूप है। यह राजनीतिक निराशा वाला भाव है। भविष्यद्रष्टा और कायाकल्प करने वाले नेता इसमें न फंसकर परिदृश्य बदल देते हैं।
राहुल गांधी के पूर्वजों ने मुश्किल, लेकिन क्रांतिकारी फैसले किए। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पार्टी के सभी दिग्गजों के खिलाफ जाकर हिंदुओं के उत्तराधिकार कानून में बदलाव किया। उन्होंने जोर दिया कि पारिवारिक संपत्ति में महिलाओं को भी बराबर का अधिकार मिलना चाहिए। इसने हिंदु समाज को ज्यादा समतामूलक बनाया। यह अलग मसला है कि वह सभी भारतीयों के लिए लैंगिक समानता लागू करने में नाकाम रहे, लेकिन इस नाकामी का यह अर्थ बिलकुल नहीं कि उन्होंने इसे लेकर हिम्मत नहीं दिखाई। इंदिरा गांधी भी समूचे पार्टी नेतृत्व के खिलाफ खड़ी हो गईं। इसके लिए जैसे राजनीतिक साहस की दरकार थी वह उन्होंने दिखाई। इन नेताओं ने शायद कुछ गलतियां भी की हों जिनके लिए उनकी आज भी उचित रूप से आलोचना की जाती है, लेकिन उनके राजनीतिक साहस पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। इसके उलट राहुल गांधी दूरदर्शिता, राजनीतिक साहस या दमखम दिखाने में नाकाम रहे। अखिलेश यादव के साथ उन्होंने अपने लिए जिस सहायक भूमिका का चुनाव किया है वह दीर्घावधि में उनके लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है।
[ लेखक , उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार एवं विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी हैं ]