अनादि काल से यह चराचर सृष्टि उस असीम प्रभुसत्ता की न्यायप्रिय बागडोर से ही अधिशासित है। यह व्यवस्था इतनी सुव्यवस्थित है कि कभी इसने किसी जीव के साथ किंचित भी अन्याय नहीं किया है। इस दुर्लभ जीवन का कोई भी सुअवसर प्रभुकृपा के बगैर संभव नहीं है। इस संसार में संपूर्ण जीवजाति अपने विगत कर्मों की शुचिता व अशुचिता के क्रम में जन्म ग्रहण करती है, लेकिन सभी को वही कुछ नहीं नसीब हो पाता है जिसकी आवश्यकता उसे महसूस होती है अथवा जिसे वह प्राप्त कर लेना चाहता हो। अपने पुण्यकर्मों के प्रभाव से प्राप्त पद की गरिमा, शक्ति व चकाचौंध में अज्ञानता से वशीभूत होकर वह समय व अपने अधीनस्थों को अपने निदेशों से निर्देशित करना चाहता है। वह भूल जाता है कि यहां जो कुछ भी मिला है वह महज प्रभुकृपा से ही सुलभ हुआ है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता की पराकाष्ठा तक पहुंचने के दो ही सूत्र हैं। एक कार्य के प्रति संघर्ष युक्त निष्ठा (ईमानदारी) और दूसरा जो प्रमुख कारक है वह है प्रभुकृपा। जीवन के महासंग्राम में सभी सैनिक अपने-अपने उद्देश्यों और आदर्शों की लड़ाई लड़ते हैं, लेकिन योग्यता, क्षमता व प्रचुर शक्ति के होते हुए भी विजयश्री उसी को मिलती है जिस पर महज प्रभुकृपा होती है।
जीवन में हर व्यक्ति संघर्ष व मेहनत करता है। चुनाव में असंख्य लोग अपना अथक श्रम, पैसा व शक्ति लगाकर भाग्य आजमाते हैं, लेकिन विजयश्री की कुर्सी व पद उसे ही प्राप्त होता है जिसे प्रभुकृपा का प्रसाद कवच रूप में प्राप्त होता है। प्रभुसत्ता के समक्ष संसार की सारी सत्ताएं धरी की धरी रह जाती हैं। उसके बगैर वे वैभव व श्रीहीन हो जाती हैं। यदि मनुष्य के हाथ में कुछ होता तो वह मनचाहा जीवन जीने की प्रभुता रखता, लेकिन एक क्षण भी वह प्रभुकृपा की स्नेह-छांव के बगैर जीवन यात्रा का पग आगे नहीं बढ़ा सकता। संसार में जो भी जिसे मिला है वह महज प्रभुकृपा से ही। वह उतनी ही देर उस पद अथवा सत्ता पर आसीन रह सकता है जितनी देर प्रभुकृपा से उसे अवसर प्राप्त हुआ है। जीव को जीवन का हर अवसर प्रभु द्वारा उसकी उत्तम बुद्धिमत्ता, शक्ति, विवेक, पौरुष व उसकी मौलिकता की परीक्षा के लिए दिया जाता है कि उसमें वह प्रभु के सौंपे गए उत्तरदायित्वों में कितना खरा सिद्ध होता है। इसलिए प्रभुसत्ता को स्वीकार कर ही हम कोई परम सत्ता को प्राप्त करने के अधिकारी हो सकते हैं।
[ डॉ. दिनेश चमोला ‘शैलेश’ ]