संजय गुप्त
मंदसौर में भड़के किसान आंदोलन ने जिस तरह उग्र रूप धारण किया और फिर धीरे-धीरे मध्य प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भी फैला उससे देश का ध्यान एक बार फिर किसानों की समस्याओं की ओर गया है। मंदसौर और आसपास के इलाकों में किसानों के द्वारा जो अराजकता और हिंसा की गई उसमें उनका उद्देश्य किसी की जान लेना नहीं था, लेकिन पुलिस अराजक भीड़ को काबू करने में असफल रही और उसे गोली चलानी पड़ी। इस गोलीबारी ने छह लोगों की जान ली और किसानों के गुस्से को और भड़काया भी। भारतीय पुलिस की यह विडंबना है कि वह अराजक भीड़ को बिना किसी नुकसान के नियंत्रित करना नहीं सीख पा रही है। इसमें संसाधन भी आड़े आ रहे हैं और प्रशिक्षण का अभाव भी। मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन को लेकर राजनीति शुरू होने में हैरानी नहीं। हैरानी इस पर है कि जो नेता खुद को किसान हितैषी बता रहे हैं वे उनकी समस्याओं का ठोस समाधान खोजने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। जब-जब किसान अपनी समस्याओं को लेकर धरना-प्रदर्शन अथवा आंदोलन करते हैं तो राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था घुटनों पर आ जाती है। किसान उग्र आंदोलन कम ही करते हैं। आमतौर पर उग्रता दिखाने के लिए राजनीतिक दल उन्हें बहकाते हैं, जैसा कि मध्य प्रदेश में देखने को मिला। मंदसौर में किसानों के आंदोलन में हालात जिस तरह बिगड़े उसके लिए कहीं न कहीं शिवराज सिंह सरकार और उनके प्रशासनिक अमले की बहुत बड़ी कमी दिखी।
ऐसा लगता है कि लंबे समय से शासन में रहने के कारण शिवराज सिंह अपने राजनीतिक विरोधियों की चालों के प्रति थोड़े निश्चिंत हो गए थे। शिवराज सिंह के राजनीतिक विरोधी किसानों को उग्र आंदोलन के लिए उकसा रहे थे, लेकिन मध्य प्रदेश के प्रशासनिक अमले को इसकी भनक ही नहीं लगी। शिवराज सिंह खुद किसान पृष्ठभूमि से आते हैं, लेकिन शायद अति आत्मविश्वास के कारण वह यह मानकर चलते रहे कि किसान उनके खिलाफ आंदोलन नहीं करेंगे। मध्य प्रदेश के जिस क्षेत्र के किसानों ने आंदोलन शुरू किया उसके संदर्भ में यह माना जाता है कि वह खेती-किसानी के लिहाज से अच्छा है और वहां के किसान अपेक्षाकृत संपन्न हैं। यह तो एक तथ्य ही है कि शिवराज सिंह सरकार ने किसानों के लिए बहुत काम किया है और इसी के बल पर भाजपा इस राज्य में लगातार जीत रही है। यदि कृषि उपज में अग्रणी रहने के बाद भी मध्य प्रदेश के किसानों ने आंदोलन किया तो इसका मतलब है कि कुछ लोग अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए भोले-भाले किसानों का इस्तेमाल कर रहे थे।
यह ठीक है कि भारत के औसत किसान गरीब हैं और उन्हें बेहतर जीवन जीने का अधिकार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे कृषि के नाम पर लिया हुआ कर्ज अन्य कामों में खर्च कर दें और फिर उसे माफ करने के लिए सरकारों पर दबाव डालें। पिछले दिनों एक शोध के जरिये यह सच्चाई सामने आई है कि संप्रग सरकार के समय या उसके पहले जो कर्ज माफी दी गई वह अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकी। मनमोहन सरकार के वक्त 2008 में चार करोड़ अस्सी लाख किसानों का करीब 70 हजार करोड़ रुपये का कर्ज माफ करते समय हुए यह सोचा गया था कि इससे पैदावार बढ़ेगी और किसानों को जो नुकसान खराब मौसम के कारण हुआ है उसकी भरपाई भी हो सकेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। किसानों ने कर्ज माफी के जरिये मिले लाभ को उत्पादकता बढ़ाने में इस्तेमाल नहीं किया। एक बड़ी गड़बड़ी यह हुई कि जिन किसानों ने अपना कर्ज चुका दिया था उन्होंने खुद को ठगा हुआ महसूस किया। उन्हें यह लगा कि उन्होंने गलती कर दी। किसानों को यह सोचना चाहिए कि बार-बार की कर्ज माफी के बाद भला कौन सा बैंक उन्हें नए सिरे से कर्ज देगा? संप्रग सरकार की कर्ज माफी योजना के बाद जब-तब ऐसी योजना नए सिरे से लाने की मांग उठती ही रहती है। हाल में भाजपा ने जब उत्तर प्रदेश के किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणा की तो अन्य राज्यों के किसानों ने ऐसी ही मांग शुरू कर दी। आज मध्य प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु आदि राज्यों के किसान कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं और उधर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार अपने चुनावी वादे को पूरा करने का रास्ता तलाश रही है।
मध्य प्रदेश के किसानों ने यह मांग भी रखी है कि उपज के लिए सरकार की ओर से तय न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की जाए, क्योंकि उन्हें अपने उत्पादन की पूरी कीमत नहीं मिल पा रही है। किसानों की यह मांग आधारहीन नहीं है। तमाम किसानों को अपनी उपज को औने-पौने दामों पर बेचना पड़ता है, क्योंकि सरकार फिलहाल ऐसे इंतजाम नहीं कर पाई है कि किसानों को अधिक उत्पादन पर अधिक लाभ भी मिल सके। इसके विपरीत अक्सर किसी इलाके में अधिक उत्पादन किसानों के लिए मुसीबत लेकर आता है। यह भी ध्यान रहे कि हर कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था नहीं है। सरकार को यह भी देखना होगा कि किस तरह अन्न, फल अथवा सब्जियों के अधिक उत्पादन की स्थिति में उन्हें जल्दी से जल्दी उन क्षेत्रों में पहुंचाया जा सके जहां इन चीजों की किल्लत हो। इसके लिए कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने होंगे ताकि जल्द खराब होने वाली उपज को अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सके। यह काम जैसे बड़े निवेश की मांग करता है उसका फिलहाल अभाव दिख रहा है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है, लेकिन जितनी आबादी खेती पर निर्भर है वह जरूरत से ज्यादा है। यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि कृषि पर लोगों की निर्भरता कैसे घटाई जाए। यह काम गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ाकर ही किया जा सकता है। मुश्किल यह है कि कृषि के अलावा रोजगार के अन्य पर्याप्त अवसर बढ़ नहीं पा रहे हैं। इसके कारण ही आज अधिकांश भारतीय अपनी रोजी-रोटी के लिए कृषि पर निर्भर हैं। कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के लिए जो अनुसंधान हो रहे हैं उनका असर अभी बहुत धीमा है। यदि किसानों को कर्ज के दुष्चक्र से बाहर निकालना है तो उनकी आमदनी बढ़ाने के नए उपायों पर विचार करना होगा। किसानों को कृषि कार्यों के लिए जो धन चाहिए होता है वह कम ही होता है। उनका अधिकांश खर्च खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई आदि में होता है। अगर उन्हें ये सुविधाएं सरकार की तरफ से मिलने लगें तो उन्हें बैंकों या साहूकारों से कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं रहेगी। इसके साथ ही फसल बीमा योजना का दायरा बढ़ाने की भी जरूरत है। हालांकि मोदी सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया है और इस सिलसिले में एक के बाद एक कई कदम भी उठाए हैं, लेकिन अभी उन सबके अनुकूल नतीजे सामने नहीं आ सके हैं। अपने देश में खेती-किसानी दशकों से खराब हालत में है। चूंकि इस हालत को सुधारने में तीन साल के समय को पर्याप्त नहीं कहा जा सकता इसलिए यह आवश्यक है कि किसान अपनी समस्या उजागर करते वक्त धैर्य का परिचय दें।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं  ]