कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता ने आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क्रिसमस के दिन अचानक लाहौर की यात्रा करने के पीछे निहित उद्देश्य भारतीय उद्योगपतियों के व्यावसायिक हितों को आगे बढ़ाना था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि पिछले वर्ष म्यांमार में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और मोदी के बीच तकरीबन एक घंटे चली मुलाकात के पीछे भी एक उद्योगपति का हाथ था और यही उद्योगपति मोदी की लाहौर यात्रा के लिए भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। कांग्रेस की यह सबसे घटिया राजनीति है। आज तक किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान से संबंध सुधारने जैसे बेहद संवेदनशील मसले में राष्ट्रीय हितों के अलावा अन्य कोई दृष्टिकोण नहीं अपनाया। विपक्षी पार्टियां प्रधानमंत्री की नीतियों अथवा उनके कार्यों की आलोचना कर सकती हैं, लेकिन इस संदर्भ में प्रधानमंत्री के मुख्य ध्येय पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। सरकारी सूत्रों ने प्रधानमंत्री मोदी की लाहौर यात्रा के इंतजाम में किसी उद्योगपति की भूमिका से इंकार करके एक अच्छा काम किया। सरकार की तरफ से दिए गए स्पष्टीकरण को अवश्य ही स्वीकार किया जाना चाहिए। हालांकि यदि प्रधानमंत्री किसी अनौपचारिक चैनल अथवा सूत्र की मदद लेते हैं और यदि वह कोई उद्योगपति भी हो तो भी ऐसा करने में कुछ गलत नहीं है।

यदि हम राजनीति को दरकिनार कर दें तो यह देखना आवश्यक होगा कि मोदी की लाहौर यात्रा कैसी रही अथवा उसका आकलन किस रूप में किया जा सकता है? दोनों ही तरफ के अधिकारियों ने बताया है कि इस यात्रा की पृष्ठभूमि मोदी द्वारा काबुल से प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनके जन्मदिन पर बधाई के लिए की गई टेलीफोनिक वार्ता के आधार पर तैयार हुई। पाकिस्तान के विदेश सचिव ने मीडिया को बताया कि मोदी ने स्वयं इस यात्रा के लिए पहल की और भारतीय पक्ष ने बताया कि शरीफ ने काबुल से दिल्ल्ी लौटते वक्त रास्ते में लाहौर में मोदी को रुकने के लिए स्वयं आमंत्रित किया। यहां ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि इस यात्रा से दोनों देशों के बीच सद्भावना का विकास हुआ। पाकिस्तानी जनता का एक बड़ा हिस्सा मोदी को लेकर बेहद सशंकित महसूस करता है। इस हिस्से का मानना है कि मोदी पाकिस्तान और मुस्लिमों को आक्रामक तरीके से नापसंद करते हैं। हालांकि मोदी के बारे में इसमें कोई सच्चाई नहीं है। मोदी की इस यात्रा का एक उद्देश्य यह भी रहा है कि पाकिस्तानी नेतृत्व और वहां की जनता को आश्वस्त किया जाए कि भारत-पाकिस्तान के बीच संबंधों में सकारात्मक बदलाव को लेकर वह बेहद गंभीर हैं। यह तब भी दिखा था जब उन्होंने मई 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के दूसरे अन्य शासनाध्यक्षों के साथ नवाज शरीफ को भी दिल्ली आमंत्रित किया। वैसे हाल के दिनों में वह बहुत आगे बढ़े हैं। सैन्य कमांडरों के सम्मेलन में मोदी ने कहा कि हम पाकिस्तान के साथ संबंधों के मामले में इतिहास बदलना चाहते हैं, हम आतंकवाद को खत्म करने के साथ ही शांतिपूर्ण संबंधों का निर्माण करना चाहते हैं, पारस्परिक सहयोग बढ़ाना चाहते हैं और क्षेत्र में स्थायित्व और समृद्धि को प्रोत्साहित करना चाहते हैं।

भारत के अधिकांश प्रधानमंत्रियों की इच्छा रही है कि पाकिस्तान के साथ संबंध दोस्ताना बनें, लेकिन पूर्व में किसी भी प्रधानमंत्री ने साफ तौर पर यह नहीं कहा कि हम इतिहास को बदलना चाहते हैं। मोदी की इस यात्रा का पाकिस्तान के दूसरे राजनीतिक दलों ने भी स्वागत किया है। उनमें से अधिकांश चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच संबंधों में सुधार हो और कुछ क्षेत्रों जैसे व्यापार आदि की शुरुआत हो। वे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, परिवहन और संचार के क्षेत्र में भी सहयोग बढ़ाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि नागरिकों के स्तर पर संवाद को अधिकाधिक बढ़ाया जाए। भारत भी परंपरागत रूप से इस बात का पक्षधर रहा है।

क्या पाकिस्तानी राजनीतिक वर्ग की स्वीकृति का यह मतलब है कि दोनों देशों के बीच भविष्य के लिहाज से द्विपक्षीय संबंधों की राह खुलेगी? इसके लिए हमें थोड़ी और गहराई में जाना होगा। मोदी ने लचीलापन दिखाते हुए इस बात को स्वीकृति दी कि दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बैंकाक में मिलें। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इसके तत्काल बाद अफगानिस्तान पर हुए सम्मेलन में भाग लेने के लिए इस्लामाबाद गईं। नई वार्ता प्रक्रिया में समग्र वार्ता के सभी विषयों को शामिल किया गया, जिन्हें तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहले कदम में व्यापार समेत अन्य सहयोग को बढ़ाना, दूसरे कदम के तहत मानवीय मुद्दों जैसे कैदियों और मछुआरों की रिहाई और तीसरे कदम के तहत सियाचिन समेत जम्मू और कश्मीर के मसले का समाधान खोजना था। पाकिस्तानी सेना भारत के प्रति संबंधों को लेकर राजनेताओं की तरह नहीं सोचती। उदाहरण के तौर पर प्रधानमंत्री शरीफ भारत के साथ व्यापार संबंधों को पूर्ण तौर पर बहाल करना चाहते हैं, लेकिन सेना ने उन्हें अभी तक इसकी अनुमति नहीं दी है। यदि पाक सेना मोदी की यात्रा को लेकर सकारात्मक रुख दिखाती है तो लाहौर यात्रा एक बड़ी पहल साबित हो सकती है। यह सवाल उठाना जरूरी है कि क्या पाकिस्तानी सेना पूरी तरह शरीफ के साथ है और उनकी ही तरह भारत के साथ सकारात्मक रिश्ते कायम करना चाहती है? निश्चित ही इसका मतलब यह होगा कि सेना भारत के खिलाफ आतंकवाद को भड़काने की अपनी नीति को छोडऩे के लिए तैयार है। मोदी की लाहौर यात्रा से जो उम्मीदें उभरी हैं उनका इम्तिहान अगले माह दोनों देशों के विदेश सचिवों की बातचीत में होगा। मोदी ने संबंध सुधारने की एक साहसिक पहल की है, लेकिन क्या पाकिस्तानी सेना उन्हें ऐसा करने देगी?

[विदेश सेवा के अधिकारी रहे लेखक विवेक काटजू, पाकिस्तान-अफगानिस्तान मामलों के विशेषज्ञ हैं]