लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे ही पाकिस्तान को बलूचिस्तान, गिलगिट और पाक-अधिकृत कश्मीर की जन-भावनाओं का आइना दिखाया, भारतीय कूटनीति का एक नया चेहरा विश्व के सामने आया। पिछले 70 वर्षों से भारत ने पाकिस्तान पर ऐसा रुख अख्तियार कर रखा था कि उससे बेचारगी की बू आती थी और ऐसा लगता था जैसे विदेश नीति चलाने वालों ने न कौटिल्य पढ़ा और न ही मैकियावेली, जबकि चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों ने उनके अध्ययन में महारत हासिल कर ली हो। प्रधानमंत्री के भाषण से 2004 में मुंबई में आयोजित 'वल्र्ड सोशल फोरम' की याद आ गई जिसमें बलूचिस्तान के कुछ लोगों का जत्था एक बैनर लेकर खड़ा था। उनकी पहली शिकायत यही थी कि 'आप लोग तो हमें भूल ही गए।' उन्होंने अपनापन वाले ऐसे अनेक उलाहने दिए कि दिल भर आया। हमने समझाने की कोशिश की कि भारत का बच्चा-बच्चा बलूचिस्तान के खान अब्दुल गफ्फार खान को अभी भी 'फ्रंटियर गांधीÓ नाम से जानता और मानता है लेकिन इस सच्चाई से हम भी वाकिफ थे कि बलूचिस्तान भारत की विदेश नीति, खासतौर से पाकिस्तान नीति में कहीं शामिल नहीं। इसमें मीडिया की भी भूमिका है। उसने भी कभी बलूचिस्तान को स्थान नहीं दिया।

प्रधानमंत्री मोदी की पाकिस्तान नीति पर विरोधी दलों ने कटाक्ष किया कि उनकी नीति में एकरूपता नहीं, वह बिना एजेंडे के नवाज शरीफ से मिलने पाकिस्तान चले गए, उन्होंने उसकी जांच एजेंसी को पठानकोट एयरबेस तक आने दिया। पहले पाकिस्तान, चीन और अन्य देशों के संबंध में विदेश नीति पर कोई भी भारत के कदम का सहज ही पूर्वानुमान लगा लेता था, लेकिन यही तो विदेश नीति की सबसे बड़ी कमजोरी थी। आखिर क्यों कोई देश विदेश नीति में हमारे कदमों का पूर्वानुमान लगा सकने की स्थिति में हो? पूर्ववर्ती शासन में अनेक सरकारें पाकिस्तान के प्रति सख्त रवैये से संभवत: इसलिए बचती रहीं कि कहीं भारत का मुस्लिम समाज और विश्व के इस्लामिक देश नाराज न हो जाएं? मोदी ने इस दृष्टिकोण को त्याग दिया और परिणाम सामने है कि न तो भारत का मुस्लिम समाज, न ही कोई मुस्लिम राष्ट्र उनसे नाराज हुआ। उलटे अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ने भारत का समर्थन किया। यह संभवत: मोदी का भारतीय मुस्लिम समाज पर भरोसा है। विश्व भी यह मानता है कि पारस्परिकता के बावजूद सभी संप्रभु राष्ट्रों को अपने-अपने राीय हितों के संरक्षण का अधिकार है। पाक तो अमेरिका को अपना सबसे बड़ा दोस्त व संरक्षक मानता था, लेकिन क्या आतंकी सरगना ओसामा-बिन-लादेन को पाकिस्तान में घुस कर मारने के अमेरिकी हवाई हमले का पूर्वानुमान पाकिस्तान को था? यह उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन पर अमेरिका ने पाकिस्तान को नसीहत दी।

पाकिस्तान इस मुगालते में है कि हिंदुस्तान के मुसलमान को ढाल बना कर वह भारत को परेशान करता रहेगा, लेकिन इससे वह सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों का ही कर रहा है. हिंदुस्तान का मुसलमान देश के लिए समर्पित है, लेकिन पाक की हरकतों के चलते उसे हमेशा सफाई देने की मुद्रा अख्तियार करनी पड़ती है। एक तरफ पाकिस्तान भारत में जघन्य आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने से बाज नहीं आता और दूसरी ओर कश्मीर में अलगाववादियों और आतंकवादियों को उकसाता है। ऐसे पड़ोसी से कैसा व्यवहार होना चाहिए?

पाकिस्तान राज्य और पाकिस्तानी समाज की सोच अलग-अलग है और यही हमारी पाकिस्तान-नीति के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भी है। कुछ समय पहले लाहौर विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने के लिए पाकिस्तान जाने पर वहां के समाज को सीमित रूप में देखने का अवसर मिला। पाकिस्तान चार घटकों में बंटा दिखा-सरकार, सेना, आतंकी संगठन और साधारण जनता। पाकिस्तानी जनता की सोच अन्य तीनों से अलग है। वहां लोकतांत्रिक संस्कृति विकसित न होने के कारण जनता अपनी भावनाओं का खुल कर इजहार तो नहीं करती, लेकिन आम पाकिस्तानियों को भारत के लोगों से प्रेम है। वे भारत के बारे में जानना चाहते हैं, यहां आना चाहते हैं। अपने बिछड़े परिजनों से मिलना चाहते हैं। वे हिंदी गानों और सिनेमा के दीवाने हैंैं। अभी भारत की पाकिस्तान नीति वहां की सरकार, सेना और आतंकी संगठनों की करतूतों की प्रतिक्रिया स्वरूप होती है। अब हमें एक 'प्रो-एक्टिवÓ पाकिस्तान नीति की जरूरत है। लालकिले से प्रधानमंत्री ने संभवत: इसकी शुरुआत का संकेत दिया है। लाहौर में बौद्धिक चर्चा के दौरान पाकिस्तानी राजनयिकों और बुद्धिजीवियों ने विश्वास व्यक्त किया था कि एक सशक्त प्रधानमंत्री ही भारत और पाकिस्तान की समस्या का समाधान कर सकता है।

भारत को पकिस्तान के संबंध में एक त्रि-आयामी नीति अपनानी होगी। एक, पाक की जनता से विभिन्न माध्यमों से वृहद् संवाद की प्रक्रिया शुरू करनी होगी, जिससे वहां की जनता को वास्तविकता से परिचित कराया जा सके। यह भी देखना होगा कि सामजिक, शैक्षणिक स्तर पर दोनों देशों की जनता एक-दूसरे के निकट आ सके। दो, सरकारी स्तर पर वार्तालाप शुरू करना पड़ेगा, यह जानते हुए भी कि पाकिस्तान की कथनी-करनी में अंतर है। ऐसा करने से ही पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह प्रोपेगंडा नहीं कर सकेगा कि हिंदुस्तान समस्याओं पर बात नहीं कर रहा। तीन, आतंकवाद का जवाब प्रतिक्रियात्मक नहीं वरन सुविचारित तरीके से देने की रणनीति बनानी पड़ेगी। भारत में हाय-तौबा उस समय मचती है जब पाक प्रायोजित आतंकवादी कुछ कर गुजरते हैं। कब तक हम अपने शांतिप्रिय, न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास होने का सर्टिफिकेट विश्व से लेते रहेंगे? बलूचिस्तान पर मोदी को प्राप्त बलूच जन-समर्थन तो एक बानगी है। अभी पाकिस्तानी जनता का एक बड़ा भाग बाकी है जो भारत का दीवाना है, जो उसके लोकतंत्र, विकास की उपलब्धियों व अंतरराष्ट्रीय छवि का कायल है। प्रधानमंत्री को उसे भी आगे-पीछे संबोधित करना होगा। भारत-पाक संबंधों की बिसात पर मोदी की एक चाल ने पकिस्तान को बैकफुट पर ला दिया है। अभी ऐसी कई चालें भारत को चलना होगा।

[ लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं ]