हमारे समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो दुखी दिखकर तृप्ति का अनुभव करते हैं। इस तृप्ति का कारण जब हम पता लगाते हैं तो लगता है यह दुखी दिखने वाला आदमी जरूर हीनभावना से ग्रसित होगा और अपने दुख का प्रदर्शन कर वह लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है और दूसरे की सहानुभूति पाना चाहता है। यह एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक रोग है। प्रदर्शन प्रत्येक व्यक्ति को प्रिय होता है। कुछ लोग अपने धन का प्रदर्शन करते हैं, कुछ रूप का प्रदर्शन करते हैं और कुछ लोग अपनी गरीबी और अपने दुख का प्रदर्शन करते हैं। इन दोनों प्रदर्शनों में आत्म-तुष्टि की ही बात रहती है। मनुष्य इन प्रदर्शनों से अपने को संतुष्ट करना चाहता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अभाव तो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में है। इस अभाव की पूर्ति के लिए मनुष्य अनेक प्रकार का प्रयास करता है। कुछ लोग अपने अच्छे कार्यों से समाज में प्रसिद्धि पाते हैं, यह भी एक प्रकार की मानसिक संतुष्टि ही है। जो लोग क्रियात्मक प्रवृत्ति के हैं वे अपने प्रत्येक अच्छे कार्यों से सुख प्राप्त करते हैं और जो लोग नकारात्मक सोच वाले हैं, जिन्होंने हर क्षेत्र में हारना स्वीकार कर लिया है, वैसे लोग अपने दुख का प्रदर्शन कर संतुष्ट होना चाहते हैं, क्योंकि ऐसे लोगों को भी संतुष्ट होने के लिए कुछ चाहिए ही। ऐसे ही लोग दूसरे की सहानुभूति प्राप्त कर गौरवान्वित होेते हैं। वे लोग यह नहीं समझते कि किसी की सहानुभूति पाना एक मानसिक अपराध है।
यह सत्य है कि सहानुभूति देने वाला लेने वाले पर अपने अहंकार को थोपता है। अगर कोई किसी को सहानुभूति देता है तो वह यह मानकर देता है कि मैंने उसकी सहायता की है। इससे उसका मनोबल बढ़ता है और लेने वाले का मनोबल घटता है। इसीलिए जो लोग दुखी रहना, हताशा और निराशा में रहना स्वीकार कर लेते हैं, वे जीवन में कभी कोई विकास नहीं कर सकते। सच पूछिए तो दुख और सुख मन की अनुभूति है। जो लोग इस संसार को सुख रूप में स्वीकार कर लेते हैं वैसे ही लोग जीवनभर सुखी रहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसे विवेकशील लोग यह मान लेते हैं कि संसार जैसा है, वैसा है। किसी के चाहने से संसार में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। हम संसार को नहीं बदल सकते।
[ आचार्य सुदर्शन ]