जब हम किसी तथ्य को देखते या सुनते हैं तो हम उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार। जब हम इसे स्वीकार करते हैं, तो इसके दावे को सत्य और अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास या अविश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। असल में सत्य पूर्ण रूप से एकतरफा नहीं होता। रस्सी को देखकर सांप समझ लेना सत्य नहीं है, लेकिन उसे सांप समझकर हमारे मन में जो भय उत्पन्न होता है वह सत्य है। जो दिखाई दे रहा है, जरूरी नहीं कि वही सत्य हो, लेकिन उसे समझना सत्य है अर्थात असत्य को जान लेना ही सत्य है। असत्य को जानकर ही व्यक्ति सत्य की राह पर आ जाता है। वैसे सत्य को जानना कठिन नहीं है, बल्कि सत्य को समझना, सुनना और सत्य आचरण करना कठिन जरूर है। सत्य एक ऐसा तथ्य है, जिसमें बड़े-बड़े ज्ञानी भी भ्रमित हो जाते हैं। सत्य को समझने के लिए एक तार्किक बुद्धि की आवश्यकता होती है और तार्किक बुद्धि भ्रम और द्वंद्व के मिटने से आती है। जब हमारा मन, वचन और कर्म एक समान हो तो हमारा भ्रम मिट जाता है और हम सत्य को समझने लगते हैं। सत्य को अक्सर कड़वा माना जाता है, इसलिए लोग इसका अनुसरण करने में डरते हैं। उन्हें यह भय सताता है कि सत्य सुनकर या जानकर उनके परिजन-करीबी उनसे दूर हो जाएंगे, लेकिन सत्य का यही कड़वापन इसे सत्य भी बनाए रखता है। हम भले ही झूठ का कितना ही साथ क्यों न दें, लेकिन एक दिन सत्य हमारे सामने आ खड़ा होगा।
सत्य से भागना या घबराना नहीं चाहिए, बल्कि कैसी भी परिस्थिति क्यों न आ जाए, हमें सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्य परेशान हो सकता है, लेकिन पराजित नहीं। अंत में जीत सत्य की ही होती है। हमारे देश का आदर्श वाक्य भी यही है, ‘सत्यमेव जयते’ यानी सत्य ही जीतता है। सत्य के साथ रहने वाले मनुष्य का मन हल्का और चित्त प्रसन्न रहता है, जिसका असर उसके स्वास्थ्य पर पड़ता है। वह हमेशा निरोगी रहता है। सत्य बोलने वाले व्यक्ति को समाज में एक अलग पहचान मिलती है। लोग उससे नि:संकोच जुड़ जाते हैं, क्योंकि वे जान जाते हैं कि सत्यवादी व्यक्ति उनके साथ छल-कपट नहीं करेगा। सत्यवादी को भी अपने जीवन में कोई कठिनाई नहीं आती, क्योंकि जब भी उसे कोई समस्या आती है तो कोई न कोई व्यक्ति उसका समाधान पेश कर देता है।
[ महर्षि ओम ]