एक बार फिर यह बहस गरम हो रही है कि कैसे हम भारतीय अपने पुरखों का सम्मान नहीं करते और अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के दबाव में उनका कद छोटा करते हैं। इस घड़ी राहुल गांधी और सोनिया गांधी को यह शिकायत है कि क्यों जहर फैलाने वाले वह लोग जो देश को बांटना चाहते हैं नेहरू का नाम अपनी जुबान पर लेते हैं। खबरदार, होशियार वगैरह। एक रोचक पहलू यह है कि अधिकांश लोगों को लगता है कि दिवंगत नेहरू की कांग्रेसी मंच पर वापसी इसलिए जरूरी हुई है कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का मुकाबला करने में सोनिया तथा राहुल बारंबार असफल होते रहे हैं। अब यही आस बची है कि परनाना नेहरू ही कुछ कमाल कर दिखाएंगे!

नेहरू की 125वीं वर्षगांठ को मनाने का जो तरीका कांग्रेस ने अख्तियार किया है वह उस पतनशील राजनीतिक दल की वर्तमान जर्जर, असाध्य, रोगग्रस्त, लाचार और हताशा की मानसिकता का ही लक्षण है। आनंद शर्मा यह घोषणा कर कि 'इस जलसे में प्रधानमंत्री मोदी को नहीं बुलाया गया है' कुछ ऐसे इतराते फिर रहे हैं मानो उन्होंने लोकसभा के चुनावों की हार का बदला ले लिया हो। वह यह जोडऩा भी नहीं भूले कि निमंत्रित उन्हीं को किया जा रहा है जो नेहरू की विचारधारा के विरोधी नहीं हैं। वैसे भी पार्टी ही नहीं देश को भी 'पारिवारिक जागीर' समझने वाले चापलूस टहुलुए दरबारी नेताओं से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? अंदाज कुछ ऐसा है कि चाचा हों या नाना हमारे हैं, कोई गैर उनके पास कैसे फटक सकता है?

कुछ ही दिन पहले कांग्रेसियों का रोना इस बात को लेकर था कि मोदी, महात्मा गांधी और सरदार पटेल को अपने कब्जे में कर राजनीतिक लाभ के लिए भुनाने लगे हैं- इस सेंधमारी में रोक लगनी चाहिए। अगर मोदी नेहरू के जन्मदिन को नजरअंदाज करते हैं तो उन पर उस महापुरुष की अवमानना का आरोप लगता है, अगर उनको श्रद्धासुमन चढ़ाने का प्रयास करते हैं तब मौकापरस्त पाखंडी होने का लांछन लगाना आसान हो जाता है। दुर्भाग्य यह है कि इस देश की बहुसंख्यक नौजवान आबादी कुनबापरस्त व्यक्तिपूजा से तंग आ चुकी है। एक ही इंसान का महिमामंडन न तो आजादी की लड़ाई के साथ न्याय करता है और न आजादी के बाद भारत के इतिहास का सही बखान है।

अपने लंबे गौरवपूर्ण इतिहास की याद दिलाने में माहिर कांग्रेसी यह भूल जाते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के करिश्माई नेताओं के सिवा और कोई महारथी आम तौर पर किसी कांग्रेसी को याद नहीं आता। अर्थात् विरासत का अर्थ इस दल के लिए नेहरू के वंशजों के जन्मजात पारिवारिक उत्तराधिकार तक ही सीमित है। लाल बहादुर शास्त्री का नाम इस सिलसिले में सबसे पहले याद आता है। बेचारे नरसिंहराव को तो उनके जीवित रहते ही भुला दिया गया था। यह कितनों को याद रह गया है कि राजगोपालाचारी, सुभाष बोस, जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, नरेंद्र देव तथा राममनोहर लोहिया सभी कभी कांग्रेस के सदस्य थे और क्रमश: सभी नेहरू के विचारों और उनकी कार्य शैली से असहमत उनके विरोधी बनने को मजबूर हुए। जिन साम्यवादियों को इस 'हैप्पी बर्थडे पार्टी' में न्यौता गया है वह भी नेहरू के समर्थक नहीं कहे जा सकते। 'धर्मनिरपेक्षता' का कच्चा पलस्तर इस खंडहर की ढहती दीवारों की दरारों की मरम्मत नहीं कर सकता। सांप्रदायिकता के खिलाफ संयुक्त मोर्चाबंदी के बावजूद भारत के मतदाता ने भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिया है। जनतंत्र का तकाजा है कि इस जनादेश को स्वीकार कर कांग्रेस अपनी भूमिका तय करे। पर कैसे हम उस दल से जनतांत्रिक आचरण की अपेक्षा कर सकते हैं जो दशकों से 'आला कमान के फरमान' के सहारे चलाई जाती रही है?

कड़वा सच यह है कि नेहरू का कद मोदी या भाजपा नहीं वरन कांग्रेसी खुद कम कर रहे हैं।

-प्रो पुष्पेश पंत [स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू]

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