संजय गुप्त। इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने यह कहकर खासी हलचल मचा दी कि यदि अमेरिका में किसी धनी व्यक्ति का निधन हो जाता है तो उसके बच्चों को उसकी संपत्ति का 45 प्रतिशत हिस्सा ही हस्तांतरित होता है। शेष संपत्ति सरकार के पास चली जाती है, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। हमें इस पर बहस करनी चाहिए। एक तरह से वह भारत में विरासत टैक्स की पैरवी करते दिखे। जब उनकी इस बात पर हंगामा खड़ा हो गया तो खुद उन्होंने सफाई दी और असहज कांग्रेस ने उनके बयान को उनका निजी विचार करार दिया। चूंकि सैम पित्रोदा राहुल गांधी के सलाहकार भी माने जाते हैं, इसलिए इस मुद्दे पर अभी तक बहस जारी है और कांग्रेस सफाई दे रही है। सैम पित्रोदा ने विवाद पैदा करने वाले बयान से वामपंथी सोच को ही उजागर किया। उनका बयान आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर कांग्रेस पर हमला बोला कि उसका वही करने का इरादा है, जो सैम पित्रोदा कह रहे हैं। उन्होंने उनके इस बयान को कांग्रेस के घोषणा पत्र से भी जोड़ दिया, क्योंकि उसमें कहा गया है कि सभी की संपत्ति का सर्वे कराया जाएगा। वैसे कांग्रेस का घोषणा पत्र यह तो नहीं कहता कि संपत्ति का सर्वे कराकर उसका पुनर्वितरण किया जाएगा, लेकिन राहुल गांधी अपने एक भाषण में इसकी ओर संकेत कर चुके हैं। इसी कारण गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि यदि कांग्रेस ऐसा इरादा नहीं रखती तो अपने घोषणा पत्र में संपत्ति का सर्वे कराने वाली बात हटाए। अब राहुल संपत्ति के पुनर्वितरण से इन्कार कर रहे हैं, लेकिन सैम पित्रोदा के बयान पर कुछ नहीं कह रहे हैं।

विरासत टैक्स वह कर है, जो अमेरिका के छह प्रांतों में लागू है। इसके अलावा कुछ और देशों में भी प्रभावी है। एक समय संपत्ति शुल्क नाम से विरासत टैक्स भारत में भी था, लेकिन 1985 में राजीव गांधी सरकार ने उसे यह कहकर खत्म कर दिया था कि जिस उद्देश्य से उसे लाया गया था, वह पूरा नहीं हुआ। वास्तव में इससे राजस्व की प्राप्ति तो बहुत कम हो रही थी, लेकिन एक बड़ी संख्या में लोगों का उत्पीड़न हो रहा था। संपत्ति शुल्क संग्रह की हिस्सेदारी मामूली थी। चूंकि इस टैक्स के आकलन की प्रक्रिया जटिल थी और उसमें मुकदमेबाजी भी होती थी, इसलिए उसकी वसूली सरकार को खासी महंगी पड़ती थी। विरासत टैक्स पर प्रधानमंत्री मोदी ने नया मोर्चा खोलते हुए राजीव गांधी को भी लपेट लिया और यह आरोप लगाया कि उन्होंने इंदिरा गांधी की संपत्ति पाने के लिए इस टैक्स को खत्म किया था। प्रधानमंत्री चुनावी सभाओं में यह भी कह रहे हैं कि लोगों की जमीन-जायदाद और यहां तक कि महिलाओं के स्त्रीधन एवं उनके मंगलसूत्र पर भी कांग्रेस की नजर है। वह उन्हें छीनकर अपने पसंदीदा वोट बैंक को देने का इरादा रखती है।

कांग्रेस की सरकारों ने आजादी के बाद धन का सृजन करने वालों पर जो कर लगाए, वे एक समय लगभग 90 प्रतिशत हो गए थे। इसके पीछे पूंजीवाद को बुरा समझने वाला चिंतन था। कांग्रेस में यह चिंतन नेहरू जी के समाजवादी सोच से आया। लगता है कांग्रेस में आज भी यह सोच है कि वेल्थ क्रिएटर्स पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स लगाने चाहिए और सरकार को ही सब कुछ करना चाहिए। यह सोच कांग्रेस के घोषणा पत्र में भी झलकती है। यह सोच देश को पिछली सदी के आठवें-नौवें दशक में ले जाने वाली है, जब विकास दर महज ढाई-तीन प्रतिशत हुआ करती थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब कांग्रेस पर गांधी परिवार का वर्चस्व नहीं था, तभी उसने प्रधानमंत्री नरसिंह राव के नेतृत्व में आर्थिक सुधारों की नींव रखी, पर कांग्रेस ने उन्हें भुला दिया। कांग्रेस पिछले दस वर्षों से जिस एजेंडे पर चल रही है, वह उद्यमशीलता के साथ-साथ कारोबारियों यानी धन का सृजन करने वालों के विरोध में ही अधिक है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर यह आरोप लगाते ही रहते हैं कि वह केवल अदाणी-अंबानी और अपने कुछ अन्य मित्र कारोबारियों के लिए ही काम कर रहे हैं। कांग्रेस खेती-किसानी का कायाकल्प करने के लिए लाए गए तीन कृषि कानूनों का भी मुखर विरोध कर चुकी है। हालांकि तमाम कृषि विशेषज्ञ इन कानूनों को सही बता रहे थे, लेकिन कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों के साथ पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी यूपी के किसान संगठनों के विरोध के चलते मोदी सरकार को ये कानून वापस लेने पड़े। भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ भी यह माहौल बनाया गया था कि सरकार किसानों की जमीन हड़पना चाहती है। इसी कारण उसे भी वापस लेना पड़ा था। ध्यान रहे कि भूमि अधिग्रहण में विलंब के चलते कई परियोजनाएं अटकती रहती हैं।

राहुल गांधी सरकारी नौकरियों पर खूब जोर दे रहे हैं, जबकि उन पर सरकारों का व्यय पहले से ही काफी अधिक है। कांग्रेस के घोषणा पत्र में 30 लाख सरकारी नौकरियां देने का वादा किया गया है। हालांकि भारत जैसे बड़े देश में इतनी नौकरियां भी नाकाफी हैं, लेकिन इस वादे के जरिये कांग्रेस यही संदेश देना चाहती है कि वह सरकारी नौकरियों पर जोर देगी। आज आवश्यकता इसकी अधिक है कि निजी क्षेत्र और खासकर मैन्यूफैक्चरिंग एवं सर्विस सेक्टर के लिए प्राथमिकता के आधार पर ऐसी नीतियां बनाई जाएं, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ें। राहुल गांधी यह दावा कर रहे हैं कि उनकी और मोदी की गांरटी में फर्क है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले आम चुनाव में जनता ने उनकी गारंटी पर भरोसा नहीं किया था। कांग्रेस के चुनावी वादों और खासकर सैम पित्रोदा के बयान से कांग्रेस का वामपंथी सोच फिर से उजागर हुआ है। कांग्रेस यह भूल रही है कि आज विश्व में वामपंथी सोच की जगह नहीं है। राहुल गांधी एक अर्से से उद्योगपतियों को खलनायक बनाने पर तुले हैं। वह इससे अनजान बने हैं कि देश आज जो उन्नति कर रहा है, उसमें कारोबारियों की भी एक बड़ी भूमिका है। आवश्यकता तो उन्हें प्रतियोगी, खुला वातावरण देने और उनके लिए ऐसा माहौल बनाने की है, जिसका लाभ उठाकर वे विश्वपटल पर अपनी धाक जमाने के लिए प्रेरित हो सकें। जब ऐसा होगा, तभी तो रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और आम जनता को लाभ मिलेगा।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)