चीन के साथ 1962 के युद्ध में भारतीय सेना की हार पर हेंडरसन ब्रुक्स-प्रेम भगत रिपोर्ट का एक बड़ा भाग पिछले दिनों एक ब्रिटिश समाचार पत्र के पूर्व भारतीय संवाददाता नेविले मैक्सवेल द्वारा ऑनलाइन जारी कर दिया गया। इस घटनाक्रम से हम सभी को उस युद्ध के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करने का अवसर मिल गया। सवाल इस विवाद पर भारतीय आचरण से भी संबंधित हैं और अपने देश में नीति निर्धारण की प्रकृति से भी। सबसे पहले तो हेंडरसन ब्रुक्स रिपोर्ट तत्काल ही हम सभी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भारत सरकार ने औपचारिक रूप से तो इसे अभी भी सार्वजनिक नहीं किया है। सार्वजनिक जवाबदेही और संस्थागत सुधार के लिहाज से इस रिपोर्ट का बिना किसी देरी के सार्वजनिक किया जाना आवश्यक था। यद्यपि इस रिपोर्ट का काफी हिस्सा मैक्सवेल द्वारा अपनी विवादास्पद पुस्तक 'इंडियाज चाइना वॉर' में आ चुका है, बावजूद इसके हालिया घटनाक्रम से हमें 1962 के युद्ध के पहले और इसके दौरान भारतीय सैन्य नेतृत्व की भूमिका के संदर्भ में अनेक सवाल नजर आने लगे हैं। रिपोर्ट तैयार करने वालों को दरअसल यह निर्देश दिया गया था कि वे जांच के अंग के रूप में सैन्य मुख्यालय के कामकाज की समीक्षा न करें। नतीजा यह हुआ कि इसमें कई ढीले छोर उभर आए हैं। फिर भी यह स्पष्ट है कि भारतीय सेना राजनीतिक नेतृत्व के 'फॉरवर्ड पॉलिसी' के विचार का कोई उपयोगी और विश्वसनीय विकल्प उपलब्ध कराने में नाकाम रही। इससे भारत में सैन्य-नागरिक संबंधों का व्यापक मसला हमारे सामने उभरता है। ये संबंध हमेशा कठिन रहे हैं। 1962 की लड़ाई की एक विरासत यह रही है कि पराजय के लिए बड़ी आसानी से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनके रक्षामंत्री कृष्णा मेनन को उत्तरदायी ठहरा दिया जाता है- खासकर इस आधार पर कि उन्होंने सेना के कामकाज में दखलंदाजी की। इसके लिए नौकरशाह वर्ग भी इस्तेमाल हुआ अथवा उसका इस्तेमाल किया गया ताकि लापरवाही की चूक को पाटा जा सके। नौकरशाही तभी आगे आती है जब उन्हें श्रेय लेना होता है अथवा राजनेताओं या मंत्रियों के कान भरने होते हैं। दूसरी ओर सैन्य अधिकारी खराब रक्षा तैयारियों और दूसरी अन्य कमियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इसमें दो राय नहीं कि सैन्य जरूरतों की जटिलता के बारे में सिविल मैनेजरों की समझ कम होती है। सैनिकों की शारीरिक और भावनात्मक परेशानियां भी कम चिंता का विषय नहीं हैं। सैन्य अधिकारियों और सैनिकों, दोनों के लिए ही अपने परिवार से दूर रहते हुए आंतरिक सुरक्षा गतिविधियों में शामिल होना शारीरिक और मानसिक तौर पर एक कठिन काम है। यहां तक सेना भी कई बार यह नहीं समझ पाती कि वह एक राष्ट्र के रूप में हमारे गणतंत्र और उसके मूल्यों की पर्याप्त सेवा नहीं कर पा रही। हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली का केंद्रीय सिद्धांत यही है कि सैन्य प्रतिष्ठान को नागरिक प्रशासन के अधीन रखा जाए। वास्तव में सेना प्रमुख के रूप में जनरल वीके सिंह के कार्यकाल में कई विवाद खड़े हुए और हाल के दिनों में एडमिरल डीके जोशी के इस्तीफा प्रकरण से भी इन दोनों पेशेवर सेवाओं की दुर्बलता का प्रदर्शन हुआ। इस संदर्भ में सैन्य और नागरिक नौकरशाही को एक दूसरे के नजरिये और हितों पर ध्यान देने की जरूरत है। खासकर तब जबकि राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में हितों में टकराव पैदा हो जाए। ऐसी स्थिति को टालने के लिए मध्यस्थता अथवा बीच-बचाव जरूरी है। ऐसी ही गलतियों के कारण 1962 में स्थितियां अधिक जटिल हुईं। देश में रक्षा उद्योगों में जवाबदेही के अभाव और रक्षा उपकरणों की खरीदारी के निर्णयों में भ्रष्टाचार के चलते ही इस तरह की अतिरिक्त समस्याएं सामने आती हैं। रक्षा से जुड़ा तीसरा मुद्दा हमारी क्षमता अथवा तैयारियों का है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कई दशकों तक तमाम भारतीय राजनयिकों की बीजिंग को लेकर गलत धारणा रही और वह यह समझ ही नहीं सके कि चीन की कम्युनिस्ट सत्ता का वास्तविक चरित्र और उद्देश्य क्या है? इसी तरह हमारे मुख्य खुफिया स्नोत इंटेलिजेंस ब्यूरो की भी धारणा यही रही कि चीन भारत की फारवर्ड पॉलिसी का विरोध नहीं करेगा। किसी भी आधिकारिक रिपोर्ट में 1962 में हुई पराजय को लेकर इंटेलिजेंस ब्यूरो अथवा भारतीय विदेश मंत्रालय के कामकाज का ब्योरा नहीं है। आज की तिथि तक भारत की दो प्रमुख खुफिया एजेंसियों की भूमिका के बारे में कोई भी संसदीय जांच नहीं हुई, जबकि किसी भी स्वाभिमानी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसा अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए था।

यहां चौथा मुद्दा है कि आखिर क्यों नागरिक और सैन्य संस्थाओं के बीच बेहतर तालमेल नहीं है अथवा 1962 के उत्तरार्ध में चीन की गतिविधियों का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका? स्पष्ट तौर पर 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद सेना, नौकरशाही, राजनीतिक वर्ग और अकादमिक स्तर पर चीन के संदर्भ में सभी पहलुओं पर व्यापक और गहन रूप में अध्ययन और शोध किया जाना चाहिए था। इस प्रकार हम चीन की किसी भी भौगोलिक विस्तार की कार्रवाई की स्थिति में तैयार रहते। दुर्भाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं किया गया और अक्साई चिन में चीन द्वारा बनाई गई सड़क की जानकारी भी एक संयोग ही था। वास्तविकता यही है कि इन हारों के बाद भी हमारी सरकार और उसकी एजेंसियां विपरीत दिशा में कार्य करती रहीं और सीमा क्षेत्र में बुनियादी ढांचे को विकसित करने पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। हमारे देश में चीन पर अध्ययन को लेकर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता और न ही हमें उसके पास उपलब्ध संसाधनों की पर्याप्त जानकारी है।

[लेखक जबिन टी. जैकब, इंस्टीट्यूट आफ चाइनीज स्टीज से जुड़े हैं]