रामिश सिद्दीकी

बाबरी मस्जिद का नाम आते ही जेहन में कई चेहरे दस्तक देने लगते हैं। बाबरी मस्जिद आंदोलन के दौरान अपने-अपने मोर्चों पर डटे इन शख्सियतों को खासी प्रसिद्धि मिली। ऐसे लोगों में सैयद शहाबुद्दीन भी एक थे जिनका हाल में इंतकाल हो गया। वह एक बड़ी शख्सियत थे। उन्होंने बाबरी मस्जिद आंदोलन के जरिये अपनी छाप छोड़ी। इस आंदोलन के माध्यम से उनके जैसे अन्य तमाम मुस्लिम नेता अब इस दुनिया से रुखसत हो गए हैं, लेकिन विरासत में छोड़े गए उनके विचार आज भी जिंदा हैं। आज भी हर साल 6 दिसंबर को दोनों पक्ष इस पर अपनी आवाज बुलंद करते हैं, मगर दूसरे शब्दों में कहें तो बाबरी मस्जिद आंदोलन एक असफल नेतृत्व की जीती-जागती मिसाल है। तमाम लोगों को इस आंदोलन के चलते अपनी जान गंवानी पड़ी, लेकिन इसके दम पर नेताओं ने अपनी राजनीति को चमकाना बंद नहीं किया। हालात हमेशा सबक भी सिखाते हैं। बीते 25 वर्षों से ज्यादा समय से चल रहे इस आंदोलन ने हमें यही सबक सिखाया कि चाहे वह दौर हो या यह दौर हो, इस पर राजनीति करने वाले मुस्लिम नेताओं ने इस पर खालिस सियासत ही की है। उन्होंने मुस्लिम समाज की असल रहनुमाई करने के बजाय उसे भटकाने का ही काम किया।
अगर इतिहास के आईने में देखें तो मीर बकी ने 1528 में बाबरी मस्जिद बनवाई थी। मीर बकी उस समय अयोध्या के गवर्नर थे। चूंकि वह कोई इस्लामिक विद्वान नहीं थे लिहाजा समझ नहीं पाए कि इस्लाम में अगल-बगल धार्मिक स्थल नहीं बनाए जाते और दो धार्मिक स्थलों के बीच दूरी जरूरी होती है। इस्लाम के दूसरे खलीफा उम्र इब्न खत्ताब के जीवनवृत्त से यह बखूबी मालूम भी पड़ता है। जब वह अपनी पहली येरूशलम यात्रा पर गए और रेजरेक्शन चर्च पहुंचे तो उस समय उनकी नमाज का समय हो गया था। उन्होंने नमाज पढ़ने की इच्छा जताई। इस पर चर्च के बिशप ने कहा कि आप यहां के राजा हैं। आप यहीं चर्च में नमाज पढ़ लीजिए। यह सुनकर खत्ताब बोले कि मैं बाहर ही नमाज अदा करूंगा। इतना कहते ही उन्होंने एक पत्थर उठाया और कहा कि जहां यह पत्थर गिरेगा मैं वहीं नमाज अदा करूंगा। उन्होंने पत्थर काफी दूर फेंका और वहीं नमाज पढ़ी। उनकी दलील थी कि अगर आज वह इस चर्च में नमाज पढ़ेंगे तो आने वाले दौर में दो समुदायों के बीच यह तकरार का मुद्दा बन जाएगा और बाद में मुसलमान कहेंगे कि हम वहीं मस्जिद बनाएंगे जहां हमारे खलीफा ने नमाज पढ़ी थी। बाद में वही हुआ जिसकी उन्होंने आशंका जताई थी। कालांतर में मुस्लिम शासकों ने उसी जगह पर मस्जिद का निर्माण किया। आज इसे ‘मस्जिद-ए-उम्र’ के नाम से जाना जाता है जो इजरायल के येरूशलम शहर में स्थित है।
मीर बकी के पास न तो ऐसा कोई सलाहकार था और न ही वैसी दूरदर्शिता कि वह यह भांप लेता कि यह फैसला आने वाले वक्त में विवाद की जड़ बन जाएगा। 1991 में नरसिंह राव सरकार ने पूजास्थल अधिनियम (विशेष प्रावधान) पारित कराया। इसके तहत भारत सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह देश में मौजूद प्रत्येक धार्मिक स्थल की सुरक्षा करे। बाबरी मस्जिद इसके दायरे में नहीं थी, क्योंकि मामला अदालत में चल रहा था और सरकार को अदालती फैसले पर ही अमल करना था, मगर उस समय मुस्लिम नेतृत्व ने इसे भी मानने से इन्कार कर दिया और इसके खिलाफ प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतर आए। लोगों को प्रदर्शन के लिए उकसाने से पहले न्यायालय के फैसले का इंतजार करना चाहिए था। बाबरी मस्जिद का मामला अभी भी न्यायालय में विचाराधीन है, मगर ऐसी तमाम बातें हैं जो मुस्लिम नेतृत्व की सोच पर सवाल खड़े करती हैं कि आखिर किन बातों ने उन्हें हमेशा सही फैसला लेने से रोका। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद यह संभव नहीं था कि मलबे के पत्थरों को इकट्ठा कर मस्जिद को दोबारा खड़ा किया जाए। मस्जिद गिरने के बाद मुस्लिम समाज के रहनुमाओं के सामने यह प्रस्ताव भी रखा गया था कि वे किसी दूसरी जगह पर मस्जिद बना लें और इसके लिए सरकार उन्हें जगह और धन दोनों मुहैया कराने के लिए तैयार थी, मगर मुस्लिम नेतृत्व ने अव्यावहारिक सोच दर्शाते हुए उस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया।
अरब देशों में जब तेल की खोज हुई और इसके चलते उनके पास काफी धन आया तो वे इस धन से अपने देश के आधारभूत ढांचे को बेहतर बनाना चाहते थे। इसके लिए कई शहरों को दोबारा बेहतर ढंग से बनाने की जरूरत थी, मगर कई शहरों में मस्जिदें राह में आ रही थीं। अरब देशों ने शहरों के कायाकल्प की उस प्रक्रिया पर विराम नहीं लगाया, बल्कि ऐसी मस्जिदों को नए सिरे से नई जगह पर स्थापित किया। मुस्लिम समाज के रहनुमाओं से यही सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब एक शहर की तस्वीर बेहतर बनाने के लिए मस्जिद किसी दूसरी जगह पर बनाई जा सकती है तो दो समुदायों में अमन, चैन और प्रेम बढ़ाने के लिए दूसरी जगह मस्जिद क्यों नहीं बनाई जा सकती? वह भी ऐसी मस्जिद जो इस्लाम के मूल आदर्शों के खिलाफ बनी थी। जब 30 सितंबर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विशेष न्यायपीठ का फैसला आया तो वह निर्णय भी मुस्लिम नेतृत्व को मंजूर नहीं हुआ और उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी लगाई। लगता है कि यह विकल्प भी तार्किक रूप ने न सोचकर भावनाओं में बहकर ही चुना गया होगा। यदि उच्चतम न्यायालय का फैसला भी मुस्लिम समाज को अपने हित में नहीं लगता तो इस मसले का क्या हल निकलेगा? 1985 में खुद मुस्लिम समाज ने ऐसा प्रतिमान पेश किया जो ऐसे हालात का पूर्वानुमान लगाने के लिए पर्याप्त है। तब शाहबानो मामले में आए उच्चतम न्यायालय के निर्णय का मुस्लिम समाज ने कड़ा विरोध किया। उसके आगे घुटने टेकते हुए तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद में कानून पारित कराकर शीर्ष अदालत के फैसले को पलटा। क्या इसे पैमाना बनाकर दूसरे समुदाय भी ऐसा दबाव नहीं बना सकते? मुझे लगता है कि आज मुस्लिम समाज को उम्र इब्न खत्ताब जैसे नेतृत्व की जितनी ज्यादा जरूरत है उतनी ही ऐसे रहनुमाओं से दूर रहने की भी जिनके चलते उन्हें न सिर्फ मायूसी मयस्सर हुई है, बल्कि विकास की राह में भी वे पिछड़ गए हैं जिसमें जान-माल का भी भारी नुकसान हुआ है।
[ लेखक इस्लामिक विषयों के जानकार और ट्रू फेस ऑफ इस्लाम के लेखक हैं ]